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गर्भवास, कामवासना और आहार की समस्या
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श्रेष्ठिपुत्र ललितांगकुमार घोडागाड़ी में बैठकर सैर करने जा रहा था। रास्ता राजमहल के पास से होकर जाता था। राजमहल के पास आते ही महल के झरोखे में वैठी हुई रानी की दृष्टि सुन्दर, सुडौल और गौरवर्ण वाले इस श्रेष्ठिपुत्र पर पड़ी। रानी उसे देखते ही कामविह्वल हो गई। उसने एक विश्वस्त दासी को भेजकर ललितांगकुमार को बुलाया । ललितांग के आते ही रानी ने अपने अंग हाव-भाव आदि का प्रदर्शन करते हुए कहा--- मैं आपको अपना हृदय समर्पित करती हूं। राजा अभी यहाँ नहीं हैं । आप निश्चिन्त होकर मेरे साथ सहवास कीजिए।' ललितांग भी रानी के रूप पर मुग्ध होकर वैसा करने के लिए तत्पर हो गया । संयोगवश कुछ ही देर में समाचार मिला कि 'राजाजी महलों में आ रहे हैं।' यह सुनते ही रानी एकदम चौंकी। ललितांगकुमार भी घबराकर सोचने लगा-राजा मुझे देख लेगे तो बुरी मौत मरवाएँगे या अन्य कठोर दण्ड देंगे । अतः उसने रानी से कहा-'मुझे झटपट छिपने की जगह बतला दो, ताकि मेरे प्राण बच सकें।' रानी ने शौचालय की गन्दी कोठरी बता दी। और कहा- 'देखो, राजाजी वहां शौच के लिए आ सकते हैं । इसलिए आप शौचालय में शौच क्रिया के गड्ढे में उलटे लटक जाइए, मैं आपके हाथ-पैर बांध देती हूँ । वहाँ किसी को आपके होने की शंका नहीं होगी।' ललितांग ने ऐसा ही किया । बेचारा दुर्गन्ध से भरे मल से लथ-पथ हो गया। बदबू के मारे नाक फट रहा था। कपड़े भी विष्ठा से भर गये। उलटा-लटकने से भी अंग-अंग में बेहद पीड़ा हो रही थी। वह थर-थर काँप रहा था। परन्तु मरता क्या नहीं करता ? बेइज्जती और घोर सजा से बचने के लिए उस गंदगी में उलटा लटका रहा । राजाजी के जाने के बाद रानी ने शौचालय में जाकर देखा तो वह बेहोश हो गया था।
मैं आपसे पूछता हूं, मों के गर्भ में बालक की स्थिति भी तो ऐसी ही होती है। गर्भवास में माता के मल-मूत्र से उसका शरीर लिपटा रहता है। ललितांगकुमार की तरह ही वह औंधा लटका रहता है, माँ के उदर में । अपनी व्यथा या पीड़ा किसी से कह नहीं सकता। यह तो एक बार का गर्भवास है । ऐसे घोर पापकर्म करने वाले को तो अनन्त बार गर्भवास में आना पड़ता है । कितना. घोर कष्ट है, गर्भवास का ?
ये महान् पुरुष पुनः गर्भवास में नहीं आते अब यौगन्धरायण उन व्यक्तियों का परिचय दे रहे हैं, जो पुनः गर्भवास में नहीं आते । उनके कथन का भावार्थ इस प्रकार है