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________________ ६५ गर्भवास, कामवासना और आहार की समस्या 'तएण से अंबडे परिव्वायए जोगंधरायणं एवं बयासीमणे मे विरई भी देवाणुप्पिओ ! गन्भवासाहि कहं न तुयं बंभयारी ?" और तभी अम्बड परिव्राजक ने यौगन्धरायण से इस प्रकार पूछाहे देवानुप्रिय ! मेरे मन में गर्भवासों से विरति है । ब्रह्मचारी ! क्या इनसे तुम्हारी विरति नहीं है ? गर्भवास में पुनः पुनः कौन आते हैं ? अम्बड परिव्राजक के इस प्रश्न का उत्तर यौगन्धरायण ब्रह्मचारी ने एक जैन साधक की भाँति ही दिया जिसका भावार्थ इस प्रकार है “ – तब यौगन्धरायण ने अम्बड परिव्राजक से यों कहा कि ( मुझे गर्भवास से विरक्ति ही है, क्योंकि) हारित अर्थात् पाप कर्म से बद्ध पुरुष इन कर्मों से पापकर्म एकत्रित करते हैं । और जो पापकर्मों से अविमुक्त हारितपापकर्म से बद्ध जीव हैं, वे पुनः गर्भवास में आते हैं । ऐसे लोग स्वयं प्राणियों की हिंसा करते हैं, दूसरे से प्राणियों की हिंसा करवाते हैं, जो अन्य लोग प्राणियों की हिंसा करते हैं, उनका अनुमोदन करते हैं, तथा उसके लिए प्रेरणा देते हैं । वे स्वयं असत्य (मृषावाद) बोलते हैं, दूसरे को उस (असत्य बोलने) के लिए प्रेरित करते हैं। ऐसे लोग अविरत हैं, पापकर्मों को आने से रोकते नहीं हैं. न हो पापकर्मों का प्रत्याख्यान करते हैं । वे अदत्तादान का भी सेवन करते हैं । दूसरों को उसके लिए प्रेरणा देते हैं । और अदत्तादान सेवन करने का अनुमोदन भी करते हैं । इसी प्रकार स्वयं अब्रह्मचर्य सहित परिग्रह का ग्रहण करते हैं, दूसरों को अब्रह्मचर्य - परिग्रह की प्रेरणा देते हैं और उसका अनुमोदन भी करते हैं ।" (ये ही गर्भवास से अविरत हैं) । यौगन्धरायण स्वयं ब्राह्मण हैं, मन्त्री भी हैं और ब्रह्मचारी भी । वे यहाँ त्रिकरण- त्रियोग से हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह से अविरत तथा अन्य पापकर्मों से अविरत, पापकर्मों को न रोकने वाले तथा उनका त्याग न करने वाले लोगों को पुनः पुनः गर्भवास में आने वाले कहते हैं । वस्तुतः गर्भवास में आने के मुख्य हेतु - तीन करण-तीन योग से नहीं त्यागे हुए ये पापकर्म ही हैं। गर्भवास में बार-बार आने का फलितार्थ है - भव-परम्परारा की वृद्धि करना, बार-बार जन्म-मरण करना, मुक्ति से बहुत दूर चले जाना । गर्भवास में आसक्त पुरुषों का जीवन कैसा होता है ?, इसके लिए आगे यौगन्धरायण कहते हैं । जिसका भावार्थ यह है
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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