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දාද
अमरदीप
'कम्मं च मोहप्पभवं वयंति'
कर्म का प्रभव (जन्म) मोह से होता है ।
अतः कर्मपरम्परा की समाप्ति के लिए मोह की जड़ पर ही प्रहार करना होगा । मोहनीयकर्म की कुल २८ प्रकृतियाँ हैं । पहले दर्शनमोह की ३, और फिर चारित्रमोह की २५ प्रकृतियाँ क्षय करनी होंगी। इनके क्षय हो जाने पर शेष तीन घनघाती कर्मों को क्षय करने में तो अन्तर्मुहूर्त से भी अधिक समय नहीं लगता । अतः कर्म को सर्वथा समाप्त करना है तो मोहकर्म की २८ प्रकृतियों का क्षय करना अनिवार्य है ।
जैसे बीज नष्ट हो जाने पर चाहे जितना खाद-पानी दिया जाए, वह वृक्ष उग नहीं सकता । जो आग धुंए से रहित होकर ठंडी हो चुकी है, वह फिर प्रज्वलित नहीं हो सकती । इसी प्रकार जिस कर्म का मूल नष्ट हो चुका है, वह आगे भवपरम्परा के रूप में फलित नहीं हो सकता ।
जैसे सूत्रधार के संकेत पर विविध वेष में अभिनेता मंच पर उपस्थित होता है, वैसे ही कर्म के संकेत पर आत्मा विविध शरीर धारण करता है । सम्पत्ति, शक्ति, और सुन्दरता आदि की न्यूनाधिकता कर्मों पर निर्भर करती है ।
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यह संसार विचित्रताओं से भरा हुआ है । संसार की इस विचित्रता विविधरूपता के मूल हैं - प्रत्येक आत्मा के स्वकृत शुभाशुभ कर्म । वृक्ष और लता के पुष्पों और फलों की विविधता का हेतु उनकी जड़ों की - बीजों की विविधता है । अतः प्रत्येक साधक को कर्म - बीज बोते समय ध्यान रखना चाहिए ।
मोहमूद व्यक्तियों की विचित्र मनोदशा
अब अर्हषि मोहकर्म के विविध परिणामों की चर्चा करते हुए
कहते हैं
पावं परस्स कुवंतो, मच्छं गलं गसंतो वा,
हसए मोहमोहिओ । विणिग्धायं न परसई ||२७||
परोवधाय तल्लिच्छो, सीहो जरो दुपाणे वां पच्चुप्पण - रसे गिद्धो, दिसं पावइ उक्कट्ठे,
दप्प-मोह-बलुङ, रो | गुणदोसं न विवई ॥ २८ ॥
मोहं- मल्ल- पोलिओ ।
वारिमज्झे व वारणो ||२६||