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________________ अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ८५ यदि नीच कर्म करते हैं, तो वे नीचगोत्रीय हैं, और चाण्डालकुल में उत्पन्न होकर भी यदि हरिकेशो मुनि की तरह उच्चकर्म करते हैं तो वे उच्चगोत्रीय हैं । इसी प्रकार हरिकेशी मुनि पूर्वजन्म में ब्राह्मण थे, किन्तु जातिमद के कारण तथा दूसरों को नीच और अस्पृश्य बताकर उनसे घणा-द्वेष करने से पूर्वकृत कर्मानुसार उन्हें नीच गोत्र मिला, गात्र (शरीर) भी काला-कलूटा कुरूप और बेडौल मिला । श्रेणिकनृपपुत्र मेघकुमार को पूर्व-जन्म में हाथी के भव में खरगोश की अनुकम्पा करने से अगले भव में राजकुमार के रूप में उच्चगोत्र तथा सुन्दर गात्र भी मिला। प्रश्न होता है, कर्म और अनित्यता किस कारण से उत्पन्न होते हैं ? अर्हतर्षि यहाँ इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार कन्द से लता और लता से फल पैदा होता है, उसी प्रकार मोह से कर्म और कर्म से अनित्यता उत्पन्न होती है। अतः यदि अच्छा फल प्राप्त करना है तो उसका मूल हेतु जानना चाहिए। आत्मा किस प्रकार के कर्म बन्ध करता है ? इस बात को जानने के लिए उसके मूल हेतु को जानना होगा। यदि मूल- शुभ अध्यवसाय है तो कर्म भी शुभ होगा. यदि हेतु अशुभ है तो कर्म अशुभ होता है। कर्म को फल कहें तो उसके हेतुभूत अध्यवसाय को हम बीज कह सकते हैं। शास्त्र में आठों ही कर्मों के तथा उनकी विभिन्न प्रकृतियों के शुभाशुभ बन्ध होने के कारणों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। अगर किसी कर्म का हेतु (अध्यवसाय) शुभ नहीं है, तो वह कर्म भी शुभ नहीं हो सकता। एक कार्य बाहर से शुभ दिखाई देता है, किन्तु उसका उद्देश्य बुरा है, तो सारा कार्य ही बुरा कहलाएगा। किन्तु एक कार्य बाहर से देखने में तो अशुभ लगता है, किन्तु उसका हेतु शुभ है तो वह कार्य भी शुभ होगा। जैसे-एक डॉक्टर तेज शस्त्रों से रोगी के अंग की चीर-फाड़ करता है, किन्तु उसके पीछे डॉक्टर का उद्देश्य रोगी को स्वस्थ और सुखी करने का है तो डॉक्टर का यह कार्य बाहर से अशुभ प्रतीत होने पर भी शुभ उद्देश्य होने से शुभ है । अब सवाल यह होता है कि इन शुभाशुभ कर्मों को आत्मा से सर्वथा पथक करने के लिए क्या करना चाहिए ? अर्हतर्षि इसके लिए २३वीं गाथा में कहते हैं कि जिस प्रकार सेनापति के हटते ही सारी सेना मैदान छोड़कर भाग खड़ी होती है, उसी प्रकार मोह के हटते ही समस्त कर्म क्षीणप्राय हो जाते हैं, क्योंकि कर्मबन्ध का मूल हेतु-राग चेतना और द्वषचेतना है। किन्तु राग और द्वष दोनों का मूल कारण मोह है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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