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________________ ८४ अमरदीप धोखेबाज हो सकते हैं, और बुरे कहे जाने वाले कार्यों को करते हए भी कई सरल और सुलभबोधि आत्मा उच्च संयमी बन सकते हैं। जैसे-गौ, ब्राह्मण, नारी और बालक ही हत्या करने वाला दृढ़प्रहारी मुनि के उपशम, संवर और विवेक, इन तीन शब्दों को सुनकर उच्चकोटि का समताधारी साधु बन गया। इसलिए केवल शुभाशुभ कहे जाने वाले कार्यों पर से ही उसके अच्छे-बुरे होने का निर्णय नहीं करना चाहिए। मनुष्य के कार्य में ही उसके जीवन के इतिश्री नहीं होती, उसके जीवन को नापने के विचार, संगति, आचरण, ज्ञान, दृष्टि आदि भी अन्य अनेक पहलू हैं। कई बार बुराई भी अच्छाई के वस्त्रों को पहनकर दूसरों को धोखा दे सकती है और कभी अच्छाई भी बाहरी दुनिया मे तिरस्कृत होकर बुराई के गंदे वस्त्र पहन सकती है, तो क्या गंदे वस्त्रों में लिपटी हुई अच्छाई उपादेय नहीं हो सकती ? अतः जैसे वस्त्रों पर से ही अच्छाई-बुराई का नाप करना उचित नहीं, वैसे ही मनुष्य के तथाकथित अच्छे-बुरे कार्यों पर से ही उसके अच्छे-बुरे होने का अनुमान करना ठीक नहीं है। युवावस्था में मन और वाणी में जोश होता है, यदि उस समय मनुष्य का शुभकर्मों की ओर झुकाव हो जाए तो उसके जीवन का निर्माण भी वंसा हो हो जाता है, उसे वाणी सम्पदा भी वैसी ही प्राप्त हो जाती है किन्तु यदि उस वय और अवस्था में उसका झुकाव अशुभ (पाप) कर्मों की ओर हो. जाए तो उसका जीवन भी तदनुसार परिवर्तित हो जाता है वैसा ही जीवन बन जाता है और वैसी ही वाणी उसे प्राप्त हो जाती है । वृद्धावस्था में होश तो रहता है, परन्तु जोश प्रायः ठंडा हो जाता है। वाणी में भी बल नहीं रहता। इसलिए वृद्धावस्था में विचार-क्रान्ति नहीं होती, तो आचार-क्रान्ति भी संभव नहीं होती। निष्कर्ष यह है कि जिस व्यक्ति को योग्यवय में शुभ या अशुभ जिस प्रकार के कर्मों का संयोग प्राप्त होता है, उसी सांचे में उसका जीवन ढल जाता है, वैसे ही मन-वचन-काया उसके हो जाते हैं, उसकी वृत्ति-प्रवृत्तियाँ भी वैसी ही हो जाती हैं। ___ यह जीव जिस प्रकार के शुभाशुभ कर्म करता है, तदनुरूप ही उसे गात्र (शरीर) मिलता है अथवा तदनुरूप ही उसे उच्च या नीच गोत्र प्राप्त होता है । संसार के समस्त देहधारी अपने-अपने गुण-कर्मानुसार ही उच्चगोत्र (उच्चता) या नीचगोत्र (नीचता) प्राप्त करते हैं। जन्म से ही किसी को उच्च या नीच मानना जैन-सिद्धान्तसम्मत नहीं है। कोई व्यक्ति ब्राह्मण या क्षत्रिय के यहाँ जन्म ले लेने मात्र से उच्च नहीं हो सकता, क्योंकि ब्राह्मण के पुत्र
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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