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________________ अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसी ८३ 'जिस प्रकार लता के फल और अफल (अच्छे-बुरे या पर्याप्तअपर्याप्त फल ) कन्द की परम्परा से सम्बद्ध होते हैं, अर्थात् - जैसा कन्द होगा, वैसी ही लता होगी, और वैसे ही उसके अच्छे-बुरे या पर्याप्त अपर्याप्त फल होंगे। उसी प्रकार कर्मों के शुभाशुभ का हेतुयुक्त बोध (विवेक) देने पर साधक उसे प्राप्त करे ॥२१॥ 'जिस प्रकार लता का मूल नष्ट कर देने पर भी पहले के उत्पन्न (लगे) हुए अच्छे-बुरे फलों का उपभोग करना ही पड़ता है, इसी प्रकार कर्मों के आदान (द्वार या आगमन) को विच्छिन्न कर देने भी जो (स्वयं द्वारा पूर्वबद्ध तथा उदयावली में प्राप्त) कर्म हैं, उन्हें तो भोग ले, उन्हें न छोड़े' ||२२|| ' जिसकी जड़ छिन्न हो चुकी है, ऐसी लता; तथा जिसका मूल सूख गया है, ऐसा वृक्ष ; ये दोनों ही नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार मोह (मोहनीय कर्म ) के नष्ट होते ही आंठों कर्म नष्ट होते हैं । जैसे— सेनापति के हटते ही सारी सेना के पैर उखड़ जाते हैं' ||२३|| 'विनष्ट बीज और धूम्र-हीन अग्नि जिस प्रकार शीघ्र समाप्त हो जाते हैं, वैसे ही मूल (मोहनीय) के नष्ट होते ही कर्म भी उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जिस तरह नष्ट - संज्ञा वाला (जिसका आगम-ज्ञान लुप्त हो गया है), उपदेशक भी समाप्त हो जाता है' ||२४|| 'जो जिस कर्म से युक्त होता है, उसे वैसा ही वेश धारण करना होता है । उसी के अनुरूप ही यह जीव सम्पत्ति, सौन्दर्य और सामर्थ्यं पाता है । जैसे कि रंगमंच पर नट पात्र के अनुरूप विविध वेश-भूषा धारण करता है । अर्थात् - पात्र का जैसा कार्य होता है, तदनुरूप वेष धारण करना पड़ता है' ।। २५ । ! संसार-परम्परा विचित्र है, वह देहधारियों को विविध रूप में उपलब्ध होती है । जैसे- समस्त वृक्ष और लता विविध फूलों और फलों से युक्त होते हैं; क्योंकि उनमें बीज विभिन्न हैं ) ' ||२६|| मानव की अच्छाई-बुराई उसके अच्छे-बुरे कार्यों पर निर्भर है, किन्तु जैसे स्थूलद्रष्टा केवल अच्छे-बुरे वस्त्रों को देखकर मनुष्य को भी अच्छा-बुरा मान लेता है । वह यह नहीं सोचता कि अच्छे सफेद वस्त्रों में भी काले दिल वाले हो सकते हैं और काले या मैले वस्त्रों में भी पवित्र आत्मा हो सकते हैं। वैसें ही अच्छे कहे जाने वाले कार्यों को करने वाले भी हृदय से अपवित्र एवं
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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