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________________ अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ८७ सवसो पावं पुरा किच्चा, दुक्खं वेएइ दुम्मई। आसत्त-कंठपासो वा, मुक्कघाओ दुट्टिओ ॥३०॥ चंचलं सुहमादाय, सत्ता मोहम्मि माणवा । आइच्च-रस्सि-तत्तं वा, मच्छा झिज्जत-पाणियं ॥३१॥ अधुवं संसिया रज्ज, अवसा पावंति संखयं । छिज्ज व तरुमारूढा, फलत्थीव जहा नरा ॥३२॥ मोहोदये सयं जंतू, मोहंतं चैव खिसई । छिण्णकण्णो जहा कोई, हसिज्जा छिन्ननासिय ॥३३॥ मोहोदई सयं जंतू, मंदमोहं तु खिसई । हेमभूषणधारी व, जहा लक्खविभूसणं ।।३४॥ मोही मोहीण मज्झमि, कोलए मोह-मोहिओ। गहीणं व गहीमज्झे, जहत्थं गहमोहिओ ॥३५।। अर्थात्- 'मोह मोहित जीव दूसरों के लिए पाप करके हंसता है। जैसे-मत्स्य आटे की गोली को (हंसते हुए) निगल जाता है, परन्तु उसके पीछे छिपे हुए विनिघात (घातक कांटे) को नहीं देख पाता' ॥२७॥ . 'दूसरे के घात में तन्मय होने वाला जीव दर्प, मोह और बल का प्रयोग करने में उत्सुक रहता है । जैसे वृद्धसिंह दुष्प्राण दुर्बल जीवों की हिंसा करता है, वह (मोह बल या दर्पवश) उस कृत्य के गुण-दोष को नहीं जान पाता, वैसे ही स्वार्थी एवं दुष्ट मनुष्य दुर्बल प्राणियों का शिकार करता है' ॥२८॥ 'मोहमल्ल से प्रेरित जीव वर्तमान क्षणिक रस के आस्वादन में आसक्त हो जाता है। मोह की प्रदीप्त ज्वाला से उद्दीप्त आत्मा मोह का तीव्र बन्ध करता है, जैसे कि पानी के बीच में रहा हुआ हाथी तीव्र उत्तेजना प्राप्त करता है' ॥२६॥ 'दुर्बुद्धि जीव पहले स्ववश रूप में पाप करता है, और बाद में दुःख का संवेदन करता है। जिस प्रकार आवेश में आकर कोई मनुष्य गले मे फांसी लगाकर मौत को निमन्त्रण दे देता है, किन्तु बाद में वेदना के कारण उससे बचना चाहता है' । ३०॥ 'चंचल (क्षणिक) सुख को प्राप्त करके मानव मोह में आसक्त हो जाता है, किन्तु बाद में, जैसे सूर्य की किरणों से तप्त होकर पानी के सूख जाने से मछलियाँ तड़फती हैं, वैसे ही वह तड़फता है' ॥३१ ।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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