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प्रगति का मूलमंत्र : समभाव
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चैन से खा-पी भी नहीं सकता था । परिग्रह में आकण्ठ डूबा हुआ मम्मण सेठ कुछ भी तो साधना नहीं कर सका, क्योंकि उसका लक्ष्य भौतिक था, आध्यात्मिक कतई नहीं।
दूसरा कण्टक युगल : कुटिलता और माया साधना के मार्ग में दूसरा कण्टक-युगल है कुटिलता और माया। माया और कुटिलता का सम्बन्ध हृदय से है। ऐसा मनुष्य शरीर से सुन्दर, सुडौल, सुरूप और समतौल दिखाई देता है, परन्तु उसके हृदय में कुटिलता, वक्रता, माया, छल-कपट या टेढ़ापन या दम्भ होता है । जिस हृदय में कुटिलता होती है, उसकी प्रतिच्छाया वचन पर भी पड़ती है,
और व्यवहार पर भी । अर्थात् ---उसके वचन में भी वक्रता होगी, और व्यवहार में भी दम्भ या छल-छद्म होगा। - अर्हषि अंगिरस ने ऐसे व्यक्ति के कुटिल व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए कहा है - .
अण्णहा स मणे होइ, अन्नं कुणंति कम्मुणा।
अण्णमण्णाणि भासते, मणुस्स गहणे हु से । ----जिनके मन में कोई दूसरी बात है, कार्य वे कुछ और ही करते हैं और वचन से इन दोनों से भिन्न ही बोलते हैं, ऐसे मनुष्य अत्यन्त गहन (दुर्विज्ञात) होते हैं । ऐसे लोगों के लिए कहा गया है
तन उजला मन साँवला, बगुला कपटी भेख ।
यासू तो कागा भला, बाहर अंदर एक ॥ नीतिकार दुरात्माओं और सच्चे महात्माओं को पहचानने की एक कसौटी बताते हुए कहते हैं
मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कार्ये अन्यद् दुरात्मनाम् ।
मनस्येकं वचस्येकं, कार्ये एक महात्मनाम् ॥ -दुरात्माओं के मन में कुछ और होता है, वचन में कुछ और है, तथा कार्य में कुछ तीसरी ही बात होती है, जबकि महात्माओं के मन में भी वही है, वचन में भी वही होती है और कार्य में भी वही एक बात होती है।
महात्मा और दुरात्मा की पहचान बाहर की वेशभूषा, चेहरे या शरीर के डीलडोल से नहीं होती। उसकी परीक्षा या पहचान सर्वप्रथम हृदय से, फिर वाणी और कार्य से होती है। अर्हतर्षि अंगिरस ने परीक्षा का माध्यम उस व्यक्ति के साथ 'संवास' को बताया है -