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अमर दीप
घोंटने वाले व्यक्ति के हाथों आदि को नशा चढ़ा देती है ? ऐसा तो कदापि नहीं होता। किन्तु जब उस भाँग को व्यक्ति पी लेता है, गले से नीचे उतार लेता है, तब वह नशा चढ़ाती है । इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादि कषाय, वासना तथा हिंसा, झूठ आदि अठारह पापस्थान अपने आप में व्यक्ति के जीवन में कोई विकार या नशा नहीं लाते, न ही ये स्वयं किसी के लिपटते या चिपटते हैं, किंतु जब कोई व्यक्ति राग, द्वेष, काम, क्रोध को या पापकर्मों को अपनाता है, उन्हें शुद्ध आत्मा के साथ लिपटा लेता है, अपना आत्मभाव भूलकर इन विभावों को अपना आत्मभाव मानकर अपना लेता है ; तब वह आत्मा रागद्वेषादि विकारों, कषायों या अठारह पापस्थानों से लिप्त हो जाता है। ये पापकर्म उस आत्मा के लिपट जाते हैं । यही आत्मा पर लेप लगने का रहस्य है ।।
कोई व्यक्ति शरीर पर तेल चुपड़ ले और फिर जहाँ हवा से धूल . उड़ रही हो, वहाँ नंगे बदन खड़ा रहे तो क्या उसके वह धूल नहीं चिपटेगी ? अवश्य ही थोड़ी ही देर में धूल उसके बदन पर चिपट आएगी। इसी प्रकार जो आत्मा राग, द्वेष, मोह आदि की स्निग्धता से युक्त है, उसके हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापकर्मों की धूल चिपट जाती है । यही आत्मा पर लेप लग जाने का रहस्य है । अर्हतषि देवल ने पापकर्म से आत्मा कैसे लिप्त हो जाता है ? इसका रहस्य बताते हुए कहा है
सुहुने वा बायरे वा पाणे जो तु विहिसइ । रागदोसाभिभूतप्पा - लिप्पते पावकम्मुणा ॥१॥ परिग्गहं गिण्हते जो उ अप्पं वा जति वा बहुं । . गेही मुच्छायदोसेणं लिप्पते पावकम्मुणा ॥२॥ कोहो जो उ उदीरेइ अप्पणो वा परस्स वा। तं निमित्ताणुबंधेण लिप्पते पावकम्मुणा ॥३॥
एवं जाव मिच्छादसण सल्लेणं............।
- राग, द्वष से अभिभूत आत्मा जब सूक्ष्म या स्थूल किसी प्रकार की हिंसा करता है, तब वह पापकर्म से लिप्त होता है।
--जो साधक थोड़ा या बहुत परिग्रह का ग्रहण करता है, वह गृहस्थों के साथ संसर्ग से आसक्ति दोष के कारण पापकर्म से लिप्त होता है।
___ जो व्यक्ति अपने या दूसरे के (शांत) क्रोध को पुनः उभारता है, उस निमित्त के अनुबन्ध से आत्मा पापकर्म से लिप्त होता है।
इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापस्थानों के निमित्त से आत्मा पापकर्म के लेप से लिप्त होता है ।