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४६ अमर दीप
के बीच में) रहता है । वह कहीं पर भी आसक्त नहीं होता अर्थात् वह सजीव-निर्जीव सभी के संग (आसक्ति) को त्यागकर निस्संग निर्लेप होता है ।"
यह है अर्हतषि देवल के शब्दों में लेप - रहित (निर्लेप ) व्यक्ति का
लक्षण ।
महर्षि समस्त साधकों को चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि साधको ! यह मानव जीवन अत्यन्त अल्प और विनश्वर है, और साधनाकाल तो बहुत ही अल्प है । इसलिए आपको समस्त लेपों (संगों) से रहित होने का सतत पुरुषार्थं करना चाहिये । लीजिए मैं स्वयं संकल्प करता हूँ-"अतः मैं समस्त लेपों से उपरत होऊँगा ।"
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कौन व्यक्ति निर्लेप हो सकता है ? इस सम्बन्ध में देवल ऋषि कहते हैं—
जस्स एते परिण्णाता, जाति-मरण-बन्धणा ।
संच्छिन्न जाति मरणा, सिद्धि गच्छंति णीरया ॥ ११ ॥
-- जिसे जन्म और मरण के बन्धन परिज्ञात हो चुके हैं, वही परिज्ञात आत्मा (ज्ञपरिज्ञा से जानकर, प्रत्याख्यान - परिज्ञा से ) जन्म-मरण के बन्धनों को तोड़कर कर्म - रज से रहित (निर्लेप ) हो सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।
वस्तुतः बन्धनों का यथार्थं परिज्ञान अर्थात् अनुभवयुक्त ज्ञान होना ही जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि है । अन्यथा अपरिपक्व साधक मौत से भागता है, जन्म से प्यार करता है और स्वर्गादि - वैषयिक सुखों के धाम में जन्म पाने हेतु साधना करता है । किन्तु निःसंग निर्लेप - स्थितप्रज्ञ आत्मा को न जन्म के प्रति मोह है, न ही मरण से भय है । किन्तु बन्धनों का परिज्ञान करके तोड़ने की दिशा में आगे बढ़ता है ।
लेप क्या है ? कैसा है ?
अब प्रश्न यह है कि लेप क्या है ? एक बात प्रारम्भ में सूचित कर है कि यहाँ आत्मा पर लगने वाला लेप कोई गारे, मिट्टी या गोबर जैसा द्रव्यलेप नहीं है, किन्तु वह भावलेप है । इसीलिए देवलऋषि कहते हैं
पाणातिवातो लेवो, लेवो अलियवयणं अदत्त च । मेहुणगणं लेवो, लेवो परिग्गह च ॥४॥ कोहो बहुविहो लेवो, माणो य बहुविधविधीओ ।" माया य बहुविधा लेवो, लोभो वा बहुविधविधीओ ॥५॥