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निर्लेप होने का सरल विज्ञान ४५ निरंजन शुद्ध स्वरूप परमात्मा है । निष्कर्ष यह है कि लेपरहित होने पर यह आत्मा ही परम पवित्रता के अन्तिम बिन्दु पर परमात्मा हो जाता है ।
जैनधर्म किसी को निराशा और हीन-दीन भावनाओं का शिकार नहीं बनने देता । वह कहता है कि तू भले ही आज लेपों से युक्त है, किंतु पुरुषार्थ करे तो एक दिन लेपों से रहित भी हो सकता है। निराश, हताश और किंकर्तव्यविमूढ़ बनकर मत बैठ, आशा और उत्साह के साथ आगे बढ़ता चल । उत्तराध्ययन सूत्र में साधकों के लिए कहा है
_ अदीणमणसो चरे -- वह अदीनभाव को लेकर विचरण करे ।
अगर पापी से पापी व्यक्ति परमात्मा न बन सकता तो श्रमण भगवान महावीर अर्जुनमाली जैसे हत्यारे को यही कह देते -"तू कभी संसार सागर से पार नहीं हो सकता, कभी मुक्त नहीं हो सकता।" परंतु उन्होंने ऐसा नहीं कहा, बल्कि अर्जुनमाली को मुनिपद प्रदान करके उसे मुक्त और लेपों से रहित बनने की साधना बता दी । अर्जुनमुनि ने सर्वोत्कृष्ट . क्षमाशील और अन्त में समस्त लेपों से रहित बनकर संसार को यह दिखा दिया कि एक उत्कट पापात्मा भी सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की अप्रमत्त होकर साधना करे तो परमात्मा बन सकता है । स्वयं भगवान् ने अर्जुनमुनि की प्रशंसा की है, उसके जीवन को अभिनन्दनीय बताया है। अगर आत्मा परमात्मा न बन सकता तो भगवान महावीर यही कहते-'अर्जुन तुम कभी परमात्मा नहीं बन सकते।' किंतु भगवान ने अपनी मुक्ति से पहले अर्जुनमुनि की मुक्ति बताई है।
समस्त लेपों से उपरत आत्मा की पहचान समस्त लेपों से उपरत आत्मा की पहचान और परिभाषा क्या है ? इसे जानने के लिए आप उत्सुक होंगे । लीजिए अर्हतर्षि देवल का इस विषय में स्पष्टीकरण
__ "लेपोपरत आत्मा समस्त कामों (इच्छाकाम मदनकाम आदि) से रहित होता है, वह सर्वसंग एवं सर्वस्नेह से विरक्त होता है। साथ ही वह समस्त (अशुभ) पराक्रमों से निवृत होकर क्रोध, मन, माया और लोभ के समस्त प्रकारों से दूर रहता है। वह समस्त वासों (निवासस्थानों या वस्त्रों) के परिग्रह से विरत रहता है। वह सभी सावध प्रवृत्तियों का संवर (निरोध) करता है । सम्यक् प्रकार से सभी वासनाओं या कामनाओं से वह सर्वोपरत होता है। वह सभी स्थानों (लेप के सभी कारणों) को उपशान्त कर देता है। वह सभी प्रकार से परिबृत व्याप्त होकर (सभी