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निर्लेप होने का सरल विज्ञान
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करके क्रमशः आठ लेप लगाकर पानी में डाल दिया जाए तो वह पानी पर तैरने के बजाय पानी में क्रमशः नीचे-नीचे बैठता जाएगा और अन्त में, वह पानी में डूब जाएगा। यही स्थिति संसारी आत्मा की है, जो भावलेपों से लिप्त होकर ऊर्ध्वगमन के बजाय अधोगमन करता है। उसका पतन होने लगता है। भावलेप से आवेष्टित आत्मा तब तक ऊर्ध्वगमन नहीं कर सकता, जब तक वह लेपों से उपरत न हो जाए। इसी विषय को स्पष्ट करते हुए तृतीय अध्ययन के प्रारम्भ में कहा गया है
भविदव्वं खलु भो ! सवलेवोवरतेणं । लेवोवलित्ता खलु भो जीवा ! अणेग-जम्म-जोणी-भयावत्तं अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चातुरंतं संसारसागरं वीतीकंता सिवमतुलमयलमव्वाबाहमपुणब्भवमपुणरावत्तं सासतं ठाणमन्भुवगता चिट ठन्ति ।
अर्थात्--मुमुक्ष आत्मा को समस्त लेपों से उपरत होना चाहिए। लेपों से उपलिप्त आत्माएं अनेक जन्म-योनियों से भयावृत, अनादि, अनवदन (अनन्त-छोर-रहित), सुदीर्घकालभावी, चातुरन्त संसार-सागर में (परिभ्रमण करती हैं) (किन्तु) लेपों से उपरत आत्माएँ इसी संसार सागर को पार करके शिव, अतुल, अचल, अव्याबाध, पुनर्जन्म और पुनरागमन से रहित होकर शाश्वत स्थान (मोक्ष) प्राप्त कर लेती हैं।
आत्मा वै परमेश्वरः, एक चिन्तन देवल अर्हत्-ऋषि के मुख से यहाँ जैन दर्शन की आत्मा बोल रही है। दूसरे दर्शन जहाँ यह कहते हैं कि साधारण आत्मा कभी परमात्मा नहीं बन सकता, वह साधारण से कुछ विशिष्ट हो सकता है, देव बन सकता है, किन्तु उसका परमात्मा होना असम्भव है। क्या एक नौकर कभी सेठ बन सकता है ? नौकर नौकर ही रहेगा, सेठ सेठ ही।
जैनदर्शन कहता है, कि अगर ऐसा ही है कि आत्मा कभी परमात्मा नहीं बन सकता, तो फिर इन साधनाओं, महाव्रतों, श्रमणधर्म आदि के व्रत-नियमों अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना करने का क्या फायदा है ? अतः जैनदर्शन प्रत्येक आत्मा को आश्वासन देता है, खासकर मनुष्य जाति को कि तुम जीव से शिव, कर्मलिप्त से कर्ममुक्त बन सकते हो। भक्तिरस-गंगा के भगीरथ आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में स्पष्ट कहा है
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा,
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ भगवन् ! विविध गुणों से युक्त आपकी स्तुति करने वाले वे भक्त