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________________ निर्लेप होने का सरल विज्ञान सिद्ध और संसारी जीव में अन्तर .. धर्मप्रेमी श्रोताजनो ! आप जानते हैं कि निश्चयदृष्टि से हमारी आत्मा और सिद्धों की आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। फिर भी हमारा यह अनुभव है कि जब तक आत्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वह बार-बार जन्म-मरण करता है, नाना दुःखों और विपत्तियों से ग्रस्त होता है, क्रोध, मान, माया और लोभरूपकषाय की आग में प्रज्वलित होता रहता है। क्या आप बता सकते हैं, इस अन्तर का क्या कारण है ? राजस्थान के एक विचारक ने इस विषय में संक्षेप में बताया है-- सिद्धां जैसो जीव है, जीव सोही सिद्ध होय । कर्म-मैल का आन्तरा, बूझे विरला कोय ॥ . स्पष्ट है कि सिद्ध और संसारी जीव में अगर कोई अन्तर है तो कर्ममल का है। इसी 'कर्ममल' को तृतीय अध्ययन के प्रवक्ता अर्हतषि दविल ने 'लेप' संज्ञा दी है। द्रव्यलेप और भावलेप का प्रभाव जब किसी वस्तु पर लेप लगा दिया जाता है तो वह वस्तु भारी हो जाती है, ऊपर उठ नहीं सकती। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में द्रव्यलेप का रूपक देकर आत्मा पर लगे हुए भावलेप का सुन्दर चित्रण किया गया है। आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है, फिर भी वह कभी नरक और कभी तिर्यंच गति में क्यों जाता है ? इसे स्पष्ट रूप से समझाते हुए कहा गया है-एक तुम्बा है, उसका स्वभाव जल में डूबना नहीं, किन्तु जल पर तैरना है। किन्तु उसे धागों से बांध कर और मिट्टी के एक-एक
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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