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________________ २६ अमर दीप चोरी, बेईमानी, ठगी, झठ-फरेब, धोखेबाजी, डकैती, धनहरण, अपहरण, चकमा आदि सब अदत्तादीन के अन्तर्गत हैं । श्रोतव्य को भलीभाँति जाननेपहचानने का तीसरा लक्षण है - अचौर्यव्रत का आचरण । इस व्यक्ति में चोरी और उससे सम्बन्धित समस्त दुर्गुण नहीं होंगे.। उसमें ईमानदारी विश्वसनीयता आदि सद्गुण होते हैं। वह सब लोगों का विश्वासभाजन बन जाता है। श्रोतव्य का चतुर्थ लक्षण : अब्रह्मपरिग्रहत्याग अब्रह्मचर्य और परिग्रह से तीन करण और तीन योग से मन-वचनकाया से दूर रहे, दूसरे को भी दूर रखता है और अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह के सेवन का अनुमोदन भी न करे । यही बात अर्हतर्षि नारद ने कही है - अबंभ-परिग्गहं तिविहं तिविहेणं णेव कुज्जा ण कारवे । चउत्थं सोयव्वलक्खणं ॥ अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह-ये दोनों जीवन को दुःखमय बनाते हैं । जहाँ ये दोनों होंगे, वहाँ शान्ति भंग हुए बिना नहीं रहती । अतः श्रोतव्य-साधक को इन दोनों का त्याग करना अनिवार्य है। श्रोतव्य के विविध गुण अर्हतर्षि नारद ने आगे इसी को विशेष स्पष्ट करते हुए कहा हैजिस साधक ने हिंसा आदि अशुद्ध एवं वैभाविक दुर्गुणों का परित्याग कर दिया है, जिसके मन, वाणी एवं कर्म में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की त्रिवेणी बह रही है, वह साधक ममत्व के सभी प्रकारों का त्याग सहजभाव से कर देता है, चाहे वह ममत्व देह-गेह-परिवार, सम्प्रदाय, प्रान्त, भाषा, जाति,आदि किसी भी प्रकार का हो । साधक उसके वास्तविक रूप को पहचान कर उसी क्षण उससे दूर हट जाता है । क्योंकि मोह-ममत्व ही प्रगाढ़ बन्धन है । श्रोतव्य साधक इस बन्धन से दूरातिदूर रहता है। इसके अतिरिक्त श्रोतव्य साधक सर्वथा विरत, दमनशील और शांत होता है। अतः उसे बाह्याभ्यन्तर संयोगों से सर्वथा विमुक्त होकर समस्त पदार्थों के प्रति सम होकर चलना है। इसका आशय यह है कि वह पदार्थों के प्रति न तो राग करे, और न द्वष ही, अपितु समत्वभाव में लीन रहे। ऐसा श्रोतव्यग्राही साधक ही उपधानवान् है बन्धुओ! शास्त्र में उपधान तप का वर्णन आता है, उसमें मुख्यतः स्वादेन्द्रिय
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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