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पाप सांप से भी खतरनाक
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स्पर्शेन्द्रिय) के विषय के निग्रह द्वारा जो जीव पाप का ग्रहण (उपार्जन) नहीं करता, वह (अनेक जन्मों तक भवभ्रमण करके) हस्तच्छेदन यावत् दौर्मनस्य आदि समस्त दुखसमूह को व्यतिक्रान्त (पार) करके अन्त में शिव, अचलरूप आत्मस्थिति (मुक्ति) को प्राप्त करता है।'
वस्तुतः पाप चाहे किसी भी प्रकार का हो, उससे विरत रहने वाला आत्मा ही अन्त में दुःखों का अन्त करता है । कुविचार ही पाप का अधिष्ठान है । पुण्य एवं धर्म की तरह पाप का सम्बन्ध भो हृदय से है । जो असद् विचारों से दूर रहता है, वह पाप और उसके कटुफल से बचता है।
एक विचारक कवि कहता है
बीज कर्म के जो बोता है, वही अकेला काटे । पुत्र कलत्र मित्र कितने हों, कोई न उनको बांटे ॥ध्र व ।। भाव अगर शुभ हों तो होता शुभ कर्मों का बन्धन । अगर अशुभ होंगे तो पाप का होगा ही संवर्धन ॥ अतः भाव बनते विमल, बनो दयालु और सरल । भाव अगर बढ़ते जाएँ तो, कोई सहे नहीं घाटे । बीज०।।१।। स्वल्प सुखों के लिए जीव ये करता ऐसे पाप है। जब होता परिपाक है, उनका मिलता अतिसताप है ।। रो-रोकर पछताता है, कहीं शान्ति नहीं पाता है ।
मधु से लिप्त खड्ग धारा को जैसे कोई चाटे ॥बीज०।।२।। कवि ने थोड़े शब्दों में बहुत-सी तथ्यपूर्ण बातें कह दी हैं । अर्हतर्षि वरिसवकृष्ण अब पापकर्मों से आत्मा को पृथक् करने का उपाय एवं परिणाम बताते हुए कहते हैं
सकुणी संकुप्पघातच, वेरत्तं रज्जुगं तहा। वारिपत्तधरोच्चेव विभागम्मि बिहावए ॥१॥
-जैसे शकुनी पक्षी अपनी वज्र-सी चोंच से फल को छेद देता है, वैरभाव राज्य को विभाजित कर देता है और वारिपत्रधर-कमल, पानी को अपने से दूर कर देता है, उसी प्रकार प्रबुद्ध आत्मा कर्म और आत्मा को पृथक कर देता है, अर्थात् पापपरिणति का परित्याग करके आत्मा को शुद्धपरिणति (आत्म भाव) में स्थित कर देता है। .