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________________ आत्मविद्या से कर्मविमुक्ति २३७. अध्यात्मविद्या या लोकोत्तर विद्या है । वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ गीता (१०।३२) में भी समस्त विद्याओं में इसो विद्या की महत्ता बताते हुए. कहा है 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्' —विद्याओं में अध्यात्मविद्या ही श्रेष्ठ हैं। अहंतर्षि विदु भो इसी अध्यात्मविद्या की परिभाषा इस प्रकार बताते हैं जेण बंधं च मोक्खं च जीवाणं गतिरागति । . आयामावं च जाणाति, सा विज्जा दुक्खमोयणी ॥२॥ -जिसके द्वारा आत्मा के बन्ध और मोक्ष, तथा जीवों की गति-आगति का ज्ञान होता है, एवं जिसके द्वारा आत्मभाव का अवबोध होता है, वही विद्या दुःखों से विमुक्त करने में सक्षम है। . वास्तव में इसी विद्या को महाविद्या कहा गया है, जिसे वैदिक विद्वानों ने पराविद्या कहा है । शंकराचार्य ने अपनी प्रश्नोत्तरी में इसी विद्या की ओर संकेत किया है ___ विद्याहि का ? 'ब्रह्मगतिप्रदा या ।' विद्या क्या है ? जो ब्रह्मगति (आत्मज्ञान या परमात्मज्ञान) प्रदान करने वाली हो । अथवा-परमात्मा की गति-मुक्ति को प्राप्त कराने वाली हो। ___ समूचे संसार का ज्ञान प्राप्त करके भी यदि अपने आपका ज्ञान प्राप्त नहीं किया तो वह विद्या क्या काम की। एक मंत्रवादी था । झाड़-फूक कर लोगों के भूत-प्रेत निकालता था। उसका घर बहुत टूटा-फूटा था । बरसात आती तो सारी झौंपड़ी चूने लगती। रातभर पानी टपकता रहता । पत्नी कहती-तुम कुछ फुर्सत निकालकर अपना घर तो बांध लो । दुनियां भरके भूत-प्रेत भगाते हो और अपना घर भूतों का सा घर बना हुआ है। इसे ठीक ठाक कर लो। पर मंत्रवादी पत्नी की बात नहीं मानता। एक दिन वह झाड़ा दे रहा था। मंत्र बोलने लगा-आकाश बांधू, पाताल बांधू, सात समुद्र बांधू, भूत बांधू, प्रत बांधू.... पत्नी ने यह सुना । उसे बड़ी चिढ़ आई। हाथ में झाडू लेकर उठी और उसकी पीठ पर दो चार झाड़ मारकर बोली
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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