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२३६ अमरदीप विद्यावान् और अविद्यावान् के यथार्थ अर्थ समझने के लिए हमें सबसे पहले विद्या और अविद्या का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। विद्या का स्वरूप
यों तो विद्या शब्द मंत्रशास्त्र में भी प्रसिद्ध है । विशिष्ट मंत्रों द्वारा चमत्कारी शक्तियों (देवियों) की आराधना और सिद्धि को भी विद्या कहा गया है । भौतिक ज्ञान-विज्ञान की विविध शाखा भी विद्याएँ कहलाती हैं। लौकिक व्यवहार में भाषाविज्ञान, अंकगणित, ज्यामिति, बीजगणित, समाजविज्ञान, अर्थशास्त्र, विधिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, कामविज्ञान (सेक्ससाइकोलोजो), शिक्षामनोविज्ञान, बाल-मनोविज्ञान, इतिहास, भूगोल, खगोल, भौतिकविज्ञान आदि विविध ज्ञान-विज्ञान बहुविध कला एवं शिल्प को विद्या कहते हैं।
वैसे तो व्याकरण के अनुसार विद्या का अर्थ होता है-जिससे जाना जाय । परन्तु धर्मशास्त्रों और ग्रन्थों में विद्या शब्द कई विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
जैन-विद्या-विशारदों ने लौकिक और लोकोत्तर यों दो भेद विद्या के बताए हैं । लौकिक विद्या के १४ भेद उन्होंने माने हैं-चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद । इन चार वेदों के भी छह अंग हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। इसके अतिरिक्त (११) इतिहास पुराण, (१२) मोमांसा, (१३) न्याय और (१४) धर्मशास्त्र; ये चार मिलकर कुल १४ विद्याएँ हैं।
वैदिक विद्वानों ने लौकिक विद्या को अपराविद्या भी कहा है। ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में सच्ची विद्या है
सा विद्या या विमुक्तये वही वास्तव में विद्या है, जो जीवों को बन्धनों से मुक्त कर दे। सच्ची विद्या शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक बन्धन को काटने तथा स्वातंत्र्य प्राप्त करने का ज्ञान करा देती है । वह मनुष्य को स्वावलम्बी, सदाचारी, आत्मपरायण बनाती है, विषयभोगों से छुटकारा दिला देती है, आत्मसंयम की कला सिखाती है। धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि लौकिक विधाओं के साथ यदि अध्यात्म, सद्धर्म और नीति का सम्पुट हो तो ये विद्याएँ भी कथंचित् उपादेय हो सकती हैं। किन्तु समग्र रूपेण उपादेय तो