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________________ महानता का मूल : इन्द्रियविजय २२६ होते ही जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ लेता है, वैसे साधक भी आस्रव की ओर प्रवृत्त इन्द्रियों का संवरण कर ले, आत्मस्थ कर ले। यही प्रतिसलीनता-तप है । इसमें अशुभ प्रवृत्ति में प्रविष्ट होती हुई इन्द्रियों को तुरन्त वहाँ से हटाकर आत्मस्थ करना होता है। इसके लिए स्वाध्याय, सुध्यान, कायोत्सर्ग आदि तप भी उपयोगी हो सकते हैं। कई लोग विषयों के ऊर्वीकरण को भी इन्द्रिय जय का मार्ग बताते हैं। परन्तु सभी विषयों का ऊर्वीकरण सम्भव नहीं है। प्रशस्त उद्देश्य से इन्द्रियों की प्रवृत्ति इन्द्रियों को अधोगामी होने से बचाकर ऊर्ध्वगामी बनाती है, परन्तु इसमें सहज संयम के नाम से इन्द्रियसंयम की लगाम ढीली हो जाती है। फिर श्रोत्रेन्द्रिय का शुभविषय-आगम-श्रवण, भगवद्गुणगानश्रवण आदि तथा चक्षुरिन्द्रिय का शुभविषय-पठन-पाठन करना-कराना, तथा जीवों की दया करना, देखकर यतना से चलना आदि द्वारा ऊर्वीकरण हो सकता है, किन्तु गंध, रस और स्पर्श का इन्द्रियों से सम्बन्ध और उनमें प्रवृत्त हुए बिना भोग नहीं हो सकता और भोगों का शुभविकल्प कोई नहीं है। अतः इन तीनों इन्द्रियों का ऊर्वीकरण सम्भव नहीं है। . कोई हठयोग के साधक यह कहते हैं कि जो भी इन्द्रिय असंयमअप्रशस्त मार्ग पर जाए, उसे वहीं तोड़-फोड़ देना चाहिए, जिससे 'न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी' । परन्तु जैनदर्शन इससे सम्मत नहीं है। द्रव्येन्द्रिय को मारने से इन्द्रिय संयम कैसे हो जाएगा ? जबकि विषयों के प्रति रागद्वेष का सम्बन्ध (मन) भाव के द्वारा होता है। इसलिए भावेन्द्रिय को साधना चाहिए । इन्द्रिय अश्व हैं । अश्व को मारकर उसका कचूमर निकाल देना कुशल चालक का काम नहीं, अपितु विपथ से मोड़कर सुपथ पर चलाना है। इसी प्रकार कुशल साधक विपथगामी इन्द्रियों को मारता नहीं, किन्तु प्रशस्त पथ पर मोड़ता है। बहिर्मुखी इन्द्रियों को अतर्मुखी करना ही इन्द्रिय-विजय की साधना का प्राण है। ये ही संसार की हेतु, ये ही मोक्ष को हेतु जिन इन्द्रियों को आम लोग आत्मविकास में विघ्नकारक मानते हैं, यथार्थ में आत्मकल्याण एवं आत्मविकास में कारण भी वे ही बनती हैं। जब तक इनका उपयोग मनुष्य बाह्य जीवन के सुखोपभोग में आसक्त होकर करता है, तभी तक वे शत्रु हैं, किन्तु ज्यों ही इन्हें आत्मकल्याण की ओर मोड़ देते हैं, अन्तर्मुखी बना देते हैं, त्यों ही ये साधक के संयम में पूर्ण सहायक भी बनती हैं।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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