SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ अमरदीप अंशमात्र असावधानी (गफलत) से इन्द्रियाँ चंचल होकर साधना को चौपट कर सकती हैं। जैसे-तप-संयम में शूर श्रेणिकपुत्र नंदीषेण असावधानी से गणिका के रूप में मुग्ध हो गये थे, तरुणी की देह सौरभ से आकृष्ट होकर बालमुनि गंधविषय के प्रवाह में बह गये थे। गुरुभक्त .तपोलीन लब्धिमान आषाढ़भूति मुनि को जिह्वार सविषय ने जरा-से प्रमाद के कारण भ्रष्ट कर दिया। संयमी एवं घोरतपस्वी सम्भूतमुनि चक्रवर्ती की रानी के कोमल केशपाश के जरा-से स्पर्श-विषय को पाकर साधना से स्खलित हो गये थे। संगीत स्वर के मधुर आकर्षण ने ज्योति-साध्वी को संयम से पतितं कर दिया था। ये सब उदाहरण साधक जीवन में जरा-सी आत्मजागृति के अभाव के सूचक हैं। इन्द्रियनिग्रह का आठवाँ उपाय है-आहार-संयम तथा तपश्चर्याउत्तेजक, रसीले, नशीले एवं शक्तिवर्द्धक खाद्य-पेय पदार्थों का त्याग, अत्यधिक आहार सेवन-त्याग, अभक्ष्य-अपेय पदार्थों का त्याग, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप और रसपरित्याग तप; ये उपाय भी इन्द्रियनिग्रह के लिए जरूरी हैं। नौवाँ उपाय–सुकुमारता एवं सुखशीलता का त्याग-सौकुमार्य एवं सुखाभ्यास, ये दोनों विकारजनक हैं, अतः इनके निवारण के लिए विविध शय्याशन, उपविहार, एवं आतापना, स्थिर आसनों का अभ्यास आदि कायक्लेश तप आवश्यक हैं । इनसे साधक इन्द्रिय-विषयों के संयोग से दूर हो जाता है। दसवाँ उपाय है-प्रतिसंलीनता-साधना-प्रत्येक पदार्थ को दो प्रकार से देखा जाता है। उसका एक रूप मधुर और दूसरा कटु प्रतिभासित होता है। मन की स्थिति ऐसी है कि वह मधुर रूप पर झट आकर्षित होकर इन्द्रियों को उसमें प्रवृत्त कर देता है। साधक उस समय उन इन्द्रियों को वहाँ से तुरन्त नहीं हटाता है, उन विषयों के मधुर रूप पर राग और कटुरूप पर द्वेषभाव करने में मन को जोड़ देता है तो उससे पापकर्म का बंध होता है । साधक को उस समय जागृत रहकर तुरन्त प्रतिसंलीनता अपनानी चाहिए, जिसका अर्हतर्षि सोरियायन निर्देश कर रहे हैं दुदंते इन्दिए पंच, राग-दोसपरंगमे। कुम्मोविव स-अंगाई, सए देहम्मि साहरे ॥२॥ राग और द्वष में प्रवृत्त पाँचों इन्द्रियाँ दुर्दान्त बन जाती हैं। अतः साधक राग और द्वेष या अप्रशस्त पथ में से किसी के आघात की आशंका
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy