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१६६ अमरदीप
अप्पाणिया खलु भो अप्पाणं समुक्कसिया ण भवति ब‘चधे गरवती। अप्पणिया खलु भो य अप्पाणं समुक्कसिय भवति बचिधे सेट्ठी ।
अर्थात् - अपने आपको स्वयं द्वारा कसकर राजा वद्धचिह्न (फटा हुआ अथवा वन्द लगा हुआ वस्त्र) नहीं कहलाता, जबकि एक सेठ अपने आपको स्वयं द्वारा कसने पर बद्धचिन्ह कहलाता है।
इसका आशय यह है कि एक सम्राट् यदि फटा हुआ वस्त्र पहनता है, तो भी फटेहाल नहीं कहलाता, बल्कि इस कार्य के लिए उसकी सादगी का बखान और आदर किया जाता है। जबकि एक सामान्य गृहस्थ फटा हुआ वस्त्र पहने तो वह फटेहाल कहा जाता है । दूसरी ओर, एक लक्षाधिपति यदि अधिक बोलता है तो वह वाचाल नहीं, किन्तु सम्भाषण में उदार . समझा जाता है; जबकि एक निर्धन किसी उचित बात को भी स्पष्ट करने के लिए अधिक बोलता है तो वाचाल या बातूनी समझा जाता है । वस्तुतः क्रिया एक होने पर भी परिस्थिति-भेद या पात्रभेद के कारण उसके परिणाम में अथवा लोकबोध में अन्तर आ जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो-एक व्यक्ति एक कार्य करता है, तो उसका परिणाम ठीक आता है, जबकि दूसरा व्यक्ति वही काम करता है तो उसका परिणाम विपरीत आता है । जैसे कि लोक में एक कहावत है
गृहस्थ के पास पैसा न हो तो वह कौड़ी का है,
साधु के पास पैसा हो तो वह भी कौड़ी का है। यहाँ पात्रभेद से क्रिया का परिणाम विपरीत है। एक क्षत्रिय योद्धा है, उसके हाथ में शस्त्र हो तो वह वीर समझा जाता है; जबकि वे ही शस्त्र साधु के हाथ में हों तो वह कायर और असाधु समझा जाता है। इसी प्रकार किसी योग्य व्यक्ति के पास उसके लिए उपयुक्त चिह्न या आभूषण न हों तो भी वह योग्य समझा जाता है। जबकि किसी अयोग्य को वे ही चिह्न या आभूषण पहना दिए जाएँ तो वह योग्य नहीं समझा जाता है। जैसे- एक राजा राजचिन्हों से युक्त न हो तो भी पहचानने वाले उसे राजा ही कहते- समझते हैं, जबकि राजा के नौकर को राजा का वेश पहना कर राजचिन्ह धारण करा दिये जाएँ तो भी लोग उसे राजा नहीं समझते। एक सेठ, भले ही सर्वमान्य हो, परन्तु वह अपने वेश में ही उचित है, अगर उसे राजा या फकीर का वेश पहना दिया जाए तो वह राजा या फकीर नहीं माना जा सकता। अतः सेठ को स्ववेश में ही अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने की आवश्यकता है।