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________________ १७६ अमर वीप जागेगी, और न ही उसके लिए वह किसी प्रकार का चमत्कार, या यंत्रमंत्रादि या जादू टोने का प्रयोग करेगा, और न ही किसी प्रकार की तिकड़मबाजी करेगा । वह अपनी स्वपर-कल्याण-साधना में मस्त रहेगा। कबूतर आदि पक्षी भी जब अपने भोजन की तलाश में निकलते हैं, तब उनके मन में न तो किसी प्रकार की आकुलता रहती है और न ही दौड़-धूप। इसी प्रकार साधु के मन में भी स्वादिष्ट पदार्थों या अभीष्ट पदार्थों को पाने की आकुलता या सब याचकों से पहले प्राप्त करने की दौड़-धूप नहीं होनी चाहिए । वह भिक्षा के समय समचित्त रहे । अगर गृहस्थ के द्वार पर कोइ भी याचक खड़ा है तो उसे अतिक्रमण करके गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश न करे । ऐसा करने से दूसरे याचकों या दाता के मन में साधु के प्रति अश्रद्धा पैदा हो सकती है तथा जैन शासन की भी अप्रतिष्ठा हो सकती है । कदाचित् अपने लाभ के प्रति विघ्नकारक समझ कर वे याचक मुनि पर क्रुद्ध होकर संघर्ष कर सकते हैं, मुनि को भला-बुरा कह सकते हैं। अतः समभाव के उपासक मुनि का कर्तव्य है कि वह अपने और दूसरों के दिलों में क्रोधादि उत्पन्न होने का निमित्त न बने। भिक्षा लेते समय भी साधु अपने मुनिरूप और शासन की प्रतिष्ठा का विचार करे । दीनता दिखाकर या रौब गांठ कर अथवा दूसरों को अपने चमत्कार दिखाकर प्रभावित करके भिक्षा लेना मुनिरूप और शासन की प्रतिष्ठा को समाप्त करना है। गृहस्थ के लिए भी यही सिद्धान्त गृहस्थ को भी उक्त दोनों एषणाओं का परित्याग करने हेतु गोपथ से जाने और महापथ से जाने का सिद्धान्त समझ लेना चाहिए। वह भी आहारादि प्राप्ति के विषय में अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होगा, महारम्भी, और महा-परिग्रही का पथ अंगीकार नहीं करेगा । कुटुम्ब पालन में जीवन निर्वाह योग्य धन से एक मकान से, थोड़े-से वस्त्रों से तथा सादे-सीधे सात्विक और पोषक भोजन से काम चल जाता है तो वह अधिक को पाने, संग्रह करने या उसके लिए महान् आरम्भ करने का उपक्रम नहीं करेगा। यही अर्हतर्षि याज्ञवल्क्य की अनुभवमूलक प्रेरणा है।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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