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________________ १६२ अमर दीप दर्शक एवं प्रतिबोधक की आवश्यकता होती है । अध्यात्म पथ पर आरूढ़ हो जाना और बात है, उस साधना-पथ में आने वाली विघ्न-बाधाओं, संकटों, उलझनों आदि के समय सकुशल पार उतरना और बात है। ऐसे समय में कुशल मार्गदर्शक या गुरु न हो तो साधक विपरीत पथ पर या सुविधावादी मार्ग पर भी चल सकता है। इसी तथ्य को अर्हतर्षि मंखलीपुत्र कहते हैं असंमूढो उ जो णेता, मग्गदोसपरक्कमो। गमणिज्ज गति णाउं, जणं पावेति गामिणं ॥१॥ सिद्धकम्मो तु जो वेज्जो, सत्थकम्मे य कोविओ। मोयणिज्जातो सो वीरो, रोगा मोतेति रोगिणं ॥२॥ यदि मार्ग दिखाने वाला असम्मूढ और कुशल नेता हो तो साधक उसके द्वारा लक्ष्य और गति का ज्ञान करके अपने गन्तव्य स्थान पर आसानी से पहुँच सकता है। शस्त्रकर्म में कुशल सिद्धहस्त वीर वैद्य मोचनीय (साध्य) रोग से रोगी को मुक्त कर देता है, सिद्धहस्त वैद्य के हाथ में रोगी स्वयं को, रोगमुक्त मानता है। इसी प्रकार अध्यात्मविज्ञान में कुशल सिद्धहस्त अनुभवी मार्गदर्शक या कुशल चिकित्सक के पास पहुँचते ही साधक अनादि वासना की व्याधियों से मुक्त हो जाता है। कुशल मार्गदर्शक गुरु अन्तर्दृष्टि खोल देता है, जिससे व्यक्ति आसानी से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करके आध्यात्मिक विकास कर सकता है। आज संसार में सैकड़ों ही नहीं, लाखों गुरु नामधारी हैं । परन्तु उनमें सच्चे मार्गदर्शक असम्मूढ गुरु कितने हैं ? इसका पता विरले ही पा सकते हैं। तिजोरी में बहुत-सा धन और आभूषण हैं, हीरा, पन्ना आदि रत्न हैं, परन्तु चाबी न मिले तो केवल अलमारी या तिजोरी के बाह्य भाग को देखने से काम नहीं चलता। चाबी मिल जाती है तो व्यक्ति अन्दर का भाग खोलकर सभी वस्तुएँ पा सकता है। यही बात आध्यात्मिक खजाने के विषय में कही जा सकती है। आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य (शक्ति) का खजाना भरा है । साधक को बाहर से तो ज्ञात हो जाता है, किन्तु वह अनन्त निधान विभिन्न आवरणों से ढका हुआ है, उन आवरणों को जब तक खोला नहीं जाता तब तक अन्दर में निहित अनन्तचतुष्टयरूप निधान प्राप्त नहीं हो सकता। उसकी चाबी कुशल गुरु के पास है। सिद्धहस्त अनुभवी मार्गदर्शक उसकी चाबी बता दें तो साधक आसानी से आध्यात्मिक विकास के पथ पर चलकर अपने में निहित अनन्तचतुष्टय को पा सकता है।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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