SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ अमर दीप ( मरणादि रूप संसार) वहाँ कतई नहीं होता । वहाँ से संसार में पुनरागमन भी नहीं होता, क्योंकि सिद्ध-आत्मा कर्मों से सर्वथा दूर होते हैं । कर्मों के आगमन का मुख्य हेतु योग है, जिनका वहाँ पूर्णतया अभाव है । ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक केवल योग ही है । वहाँ इर्यापथिक क्रिया है, जो १४वें गुणस्थान में समाप्त हो जाती है । गति धर्मास्तिकाय - सापेक्ष होने से आत्मा ऊर्ध्वगतिधर्मी होते हुए भी लोकाग्र से ऊपर नहीं जाती । बौद्धदर्शन आत्मसंतति के सर्वथा उच्छेद को निर्वाण मानता है जबकि जैनदर्शन मोक्ष में आत्मा का उच्छेद नहीं, उसका सद्भाव मानता है। हाँ, मोक्ष में आत्मा की विभावदशाजन्य विकृतियाँ सर्वथा समाप्त हो जाती हैं, किन्तु आत्मा समाप्त नहीं होती । यदि आत्मा ही समाप्त हो जाए, तो फिर साधना किसके लिए की जाएगी ? अतः सिद्धि प्राप्त आत्मा शाश्वत रूप में स्थित रहता है । विश्व के समस्त पदार्थ द्रव्यरूप से नित्य हैं किन्तु पर्याय- परिवर्तन की अपेक्षा अनित्य भी है । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार वस्तु का स्वभाव ही 'उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्तं सत्' अर्थात् - उत्पत्ति, व्यय, ध्रौव्य से युक्त ही संत्द्रव्य है । प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पत्ति और विलय (विनाश) में परिवर्तित हो रहा है, किन्तु उसके परिवर्तन का यह वर्तन ध्रुव की धुरी पर ही स्थित है । इस ध्रुव सिद्धान्त में सिद्धिस्थित आत्मा भी उत्पाद - व्ययशील है । उनमें भी सूक्ष्म परिवर्तन है । स्वभावस्थित सिद्ध-आत्मा भी स्वगुणों में रमण करता है । यह रमणता ही सिद्धों के सूक्ष्म परिवर्तन की परिचायिका है । समस्त द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्त हैं, उनका पर्याय- परिवर्तन सिद्धात्माओं का पर्यायपरिवर्तन है । धन्य है उन सिद्धगति प्राप्त आत्माओं को अर्हत महाकाश्यप इस अध्ययन की अन्तिम गाथा द्वारा उन महान् आत्माओं को धन्यवाद देते हैं, जिन्होंने अनन्त अनथक पुरुषार्थ करके कर्मों के साथ व्यवस्थितरूप से युद्ध किया और उन्हें परास्त करके वे मोहविजयी, अजेय वीतरागी, सर्वतोभद्र एवं सर्वभाव प्रकाशक सर्वज्ञ बने । सर्वज्ञ प्ररूपित रत्नत्रयरूप शुद्ध धर्म का सम्यक् आचरण करके, भगीरथ पुरुषार्थं द्वारा वे मोक्षशिखर पर पहुँच कर जगत् के जीवों को महती प्रेरणा दे रहे हैं, कर्मों से मुक्त होने की, जन्म-मरणरूप भवपरम्परा से छुटकारा पाने की, तथा अखण्ड आत्म-विश्वास और प्रबल आत्मशक्ति से आगे बढ़ने की !
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy