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जन्म-कर्म-परम्परा की समाप्ति के उपाय
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सकता और वेदनीयादि शेष अघाती (भवोपग्राही) कर्म क्षय न हों तो सकर्म आत्मा सिद्ध कैसे होगा? ऐसी स्थिति में केवली भगवान् अष्टसमयभावी समुद्घात करते हैं। प्रथम चार समय में वे दण्ड, कपाट, मन्थान और अन्तःपूर्ति के रूप में आत्मप्रदेशों को लोकव्यापी बनाते हैं और शेष चार समय में उसी क्रम से पुनः उन आत्मप्रदेशों को समेट कर शरीरस्थ करते हैं। यही क्रिया केवलि-समुद्घात है। जैसे गीला वस्त्र फैला देने से जल्दी सूख जाता है, उसी प्रकार समुद्घात से आत्मप्रदेशों को फैलाकर लोकव्यापी बना देने से वेदनीयादि तीन अघाति कर्मो की स्थिति आयुष्य के बराबर हो जाती है। उसके बाद केवली क्रमशः काया, वचन और मनोयोग का निरोध करते हैं । (पहले वे स्थूल वचनयोग से स्थूल काययोग का और फिर स्थूल मनोयोग से स्थूल वचनयोग का निरोध करते हैं। फिर वे सूक्ष्म काययोग के द्वारा स्थूल मनोयोग का और बाद में क्रमशः सूक्ष्म वचनयोग से सूक्ष्म काययोग का तथा सूक्ष्म मनोयोग से सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करते हैं। और अन्त में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान के चतुर्थ पाद से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं।) तत्पश्चात् वे शैलेशी निष्कम्प अवस्था को प्राप्त करते हैं। फिर अनिवृत्ति (अनियट्टी) अवस्था प्राप्त करते हैं। अनिवृत्ति, वह भाव है, जो मुक्ति पाये बिना निवृत्त नहीं होता। इसे अनियट्टीगुणश्रेणी भी कहते हैं । तदनन्तर क्रियारहित सर्वसंवररूप शैलेशी अवस्था आती है। जिसमें पाँच लघु अक्षरों (स्वरों) के उच्चारण काल तक आत्मा शरीर में ठहर कर फिर देहमुक्त होकर सिद्ध होता है।
___ सम्पूर्ण कर्मक्षय होने के बाद आत्मा की यही सर्वोच्च शुद्धतम स्थिति है।
नौका अथाह समुद्र के जल पर तैरती है। नौका के नीचे प्रचुर जलराशि रहती है, तथापि नौका में एक बूंद भी नहीं रहती। इसी प्रकार मोहमुक्त केवली आत्मा शेष आयुष्य पूर्ण न हो, तब तक संसार में नौका के सदृश रहता है। अनन्तानन्त कर्म-वर्गणाएँ उसके चारों ओर रहती हैं। कर्मद्रव्य संसार में तो सर्वत्र व्याप्त है, सिद्ध-शिला पर भी कर्म प्रदेश हैं किन्तु सिद्ध जीव कर्मविमुक्त होते हैं और चार कर्मों से युक्त होते हुए भी केवली भगवान् संसार से अलिप्त रहते हैं। रोग-विमुक्त व्यक्ति की भाँति वे भवभ्रमण के रोग से मुक्त होकर असीम आनन्द का अनुभव करते हैं।
सिद्धगति में देह, वाणी और मन रूप से पृथक् एकमात्र शुद्ध आत्मा ही स्वस्वरूप में स्थित रहती है। कर्म वहाँ बिलकुल नहीं है, इसलिए जन्म