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________________ जन्म-कर्म-परम्परा की समाप्ति के उपाय १२३ तपस्या द्वारा जो निर्जरा होती है, वही मोक्ष-प्राप्ति में आत्मा की शुद्धि में सहायक बनती है । कैसे ? एक दृष्टान्त से समझिये जंगल में एक तालाब है। उसमें पानी भरा है। किन्तु वह गँदला है, धूल-मिट्टी-कचरा उसमें मिल गया है। पानी बदबूदार हो गया है। वह पीने के योग्य नहीं रहा। तो क्या वह पानी कभी भी पीने योग्य नहीं बन सकता ? शुद्ध, साफ और निर्मल नहीं हो सकता ? अवश्य हो सकता है। उसके लिए निर्मली आदि वस्तुओं की आवश्यकता है। उसे विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजारना होगा, निथारना और छानना होगा, फिल्टर करना होगा, वह पानी निर्मल, शुद्ध और स्वच्छ हो जायेगा, स्वभाव में आ जायेगा। __ इसी तरह यह आत्मा है। इसमें भी पापों की बदबू और कर्मों का कीचड़ इकट्ठा हो गया है। दुर्गुणों की दुर्गन्ध आ रही है, दु:खों के काँटे उग आये हैं, अशुद्ध दशा में आत्मा आ गई है। तो इसे भी शुद्ध और स्वाभाविक दशा में लाया जा सकता है । लेकिन कैसे? तो बात यह है कि जिस तरह विभिन्न प्रक्रियाओं से गन्दे पानी को शुद्ध किया जाता है उसी तरह विभिन्न प्रक्रियाओं से आत्मा भी शुद्ध हो सकती है। पानी की शुद्धि एसिडों और कैमीकलों तथा छानने-निथारने से होती है और आत्मा की शुद्धि होती है तप से । जिस तरह विभिन्न क्रियाओं से पानी की गन्दगी दूर होती है, इसी तरह तप से आत्मा पर लगे कर्मों की निर्जरा होती है, कर्मरूपी मैल दूर हो जाता है। . इसीलिए तप द्वारा हुई निर्जरा को ही आत्म-शुद्धि तथा मोक्ष-प्राप्ति में कार्यकारी माना गया है। ___ सज्जनो! यद्यपि विषय कुछ लम्बा होता जा रहा है; किन्तु तप का वर्णन किये बिना निर्जरा तत्त्व का विवेचन पूरा नहीं होता। जैन शास्त्रों में निर्जरा के भेदों में तप ही गिनाए गये हैं। तप १२ प्रकार के होते हैं, इसलिए निर्जरा तत्व के भी बारह भेद बताये हैं। अतः अब मैं संक्षेप में आपको तप के बारे में भी बताता हूँ। तप का लक्षण 'तप' शब्द 'तप्' धातु से बना है। इसका अर्थ होता है तपना या तपाना । इसीलिए आवश्यक मलयगिरि में कहा गया है तापयति अष्टप्रकारं कर्म इति तपः ।
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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