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अमर दीप
दुःख और सुख मन की माया ।
इस माया का पार न पाया । भटक-भटक कर थका, मगर पा सका न सुख का द्वार। कर ले यह संसार मोक्षमय, कर ले यह संसार ।
प्रथम उपाय : सभी बाह्य सुखों को दुःखावह समझो अर्हतर्षि कुर्मापुत्र तो इससे भी आगे बढ़कर कहते हैं-जिन पदार्थों में तुम सुख की कल्पना करते हो, वे भविष्य में दुःख लाने वाले होने से दुःख रूप ही हैं, ऐसा मान लो। इसके अतिरिक्त जो पदार्थ या संयोगादि वर्तमान में तुम्हारे हृदय में अप्रसन्नता का संचार कर देते हैं, वे भविष्य के किसी न किसी सुख के कारण भी बन सकते हैं, इस कला को या वैचारिक सूत्र को हस्तगत कर लेने से कभी, कैसी भी परिस्थिति में मनुष्य को दुःख नहीं होगा। इस प्रकार की कला के धनी मानव ऐसे कल्पित सुख-दुःख के समय समत्वभाव रखकर आत्मभाव की मस्ती में लीन हो जाते हैं। फिर उन्हें स्वयं को दीन-हीन मानने की बात ही नहीं रहती। इस कला को प्राप्त करना कोई कठिन भी नहीं है, आप इसे असंभव न समझें। थोड़े-से मानसिक अभ्यास से यह कला हस्तगत हो सकती है।
वास्तव में सुख को कहीं बाहर ढूंढ़ने की जरूरत नहीं । सुख का सागर हमारे अन्तर् में ही लहरा रहा है । मन के विचारों में ही सुख और दुःख है। हमें अपने विचारों को मोड़ने की जरूरत है। सुख की खोज मन में ही करनी है, बाह्य पदार्थों में नहीं । अगर भौतिक पदार्थों में ही सुख मिलता तो संसार में आज कोई भी व्यक्ति दुखी न रहता । किसी भी पदार्थ का स्वभाव सुख या दुःख देना नहीं है। मैं एक ऐतिहासिक उदाहरण द्वारा अपनी बात स्पष्ट कर दूं
- अरब देश की घटना है । एक अच्छे घर का संस्कारी युवक शत्रुओं द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने उसे एक अमीर को गुलाम के रूप में बेच दिया। फिर भी उस युवक के सुख पर प्रसन्नता अठखेलियाँ कर रही थी। पड़ोस में रहने वाले एक व्यापारी ने उससे पूछा- "भाई ! इस गुलामी से तुझे दुःख नहीं होता ?"
र युवक- "दुःख ? दु ख किस बात का ? भगवान् जिस स्थिति में रखे, उसी में रखना चाहिए । पहले मैं अपने घर में रहकर काम करता और पेट भरता था, अब पराये घर में काम करके पेट भरता हूँ। मेरा घर ही तो बदला है। यह घर भी कदाचित् बदल जाएगा। इसमें दु ख किस बात का?"