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________________ ७८ अमर दीप अध्यात्म योद्धा को यह भी पता न हो कि मुझे क्यों और जिसके साथ युद्ध करना है ? बाह्य युद्ध के मैदान में दुश्मन को देखते ही गोली मार दी जाती है, इसी प्रकार इस आन्तरिक युद्ध में भी शत्रु को देखते ही या आक्रमण करने को उतारू होते ही उसे दबा या हटा न दिया जाए या मार भगाया न जाए तो कितनी हानि होगी ? अतः इस आन्तरिक युद्ध के मोर्चे पर शत्रु और मित्र की पहचान अवश्य होनी चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी है कि आन्तरिक शत्रुओं का सामना करने की तैयारी तब नहीं की जाती, जब शत्रु हमला करने को उतारू हो। यह तैयारी तो शत्रु के आक्रमण से पहले ही कर लेनी चाहिए । आन्तरिक शत्रु का हमला होते ही उसका प्रतिकार तुरन्त कर सके इतनी तैयारी के साथ शस्त्र-अस्त्र से सुसज्जित होकर रहना भी बहुत आवश्यक है। यह याद रखिये कि इन आन्तरिक शत्रुओं के साथ जूझे बिना इन्हें मार भगाया नहीं जा सकेगा। फिर ये शत्रु तो एक जन्म के नहीं, अनन्तकाल से अपनी आत्मा पर हावी हो रहे हैं। अतः इन्हें दूर धकेलने के लिए घोर संग्राम करना पड़ेगा, तथा पल-पल पर सावधान एवं अप्रमत्त होकर चलना है। इस अध्ययन की प्रथम और तृतीय गाथा में अर्हतर्षि वल्कलचीरी ने स्पष्ट घोषणा की है कि अशुभ वृत्तियों से लड़कर आत्मा की रक्षा करनी है। आत्मा के अन्तरंग शत्रु-काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकारों से युद्ध करके शुद्ध आत्मा को विजयी बनाना है; तथा नारी-अर्थात्-पंचेन्द्रिय-काम-भोगों की आसक्ति के साथ युद्ध करके शुद्ध आत्मा की रक्षा करना है। क्या इस युद्ध के लिए मैदान साफ है ? शस्त्रास्त्र सामग्री तैयार है ? तथा युद्ध के लिए व्यूह रचना करने वाले तैयार हैं ? ये तीनों तैयार हों तो आपको कृतनिश्चयी होकर मैदान में उतर जाना है। अगर इस जीवन में कुछ न किया तो फिर दीर्घातिदीर्घ काल तक पश्चात्ताप और रुदन करना पड़ेगा। अशुभ वृत्तियों पर विजय : क्यों और कैसे ? अर्हतर्षि ने सर्वप्रथम अशुभ वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने की बात कही है । अनादिकाल से परिभ्रमण करते-करते आत्मा ने बहुत-सी शत्रुतुल्य वृत्तियाँ मित्रवत् बना ली हैं। वही वृत्तियाँ मनुष्य को बार-बार परेशान करती हैं । वे जागृत रहती हैं, मनुष्य सो जाता है। जैसे-एक मनुष्य को भूख लगी है, अथवा उसे स्वादिष्ट मालपुआ खाने की इच्छा जगी है । बहुत-से लोग तो उन वृत्तियों के साथ लड़ना ही नहीं चाहते, वे उनके साथ समझौता कर लेते हैं, उनका उलटा सिद्धान्त है
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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