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जीवन : एक संग्राम
से हुआ है और इसी आध्यात्मिक जीवन-संग्राम का संकेत अर्हत्-ऋषि वल्कलचीरी छठे अध्ययन के प्रारम्भ में करते हैं
मातंग - सढे कायभेदाति । तमुदाहरे,
देव-दाणवाणुमतं ॥१॥
तेणेमं खलु भो लोकं, सणरामरं वसीकतमेव मण्णामि । तमहं बेमि विरयं वागलचीरिणा अरहता इसिणा बुझतं ॥ २ ॥ अबंधवे ।
वि जुधिरे जणे ॥३॥
य
तमेव उवरते
आयति
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ण णारोगण - पसत्ते,
'अप्पणी
पुरिसा जत्तो वि वच्चह, तत्तो इत्थीद्ध वसए, अप्पणी अबंधवे । जत्तो विवज्जती पुरिसे, तत्तो विज्झविणे जणे ॥११॥
अर्थात् - देह-भेद न होने पर भी गजेन्द्र की सी श्रद्धा रखने वाला साधक भविष्य में ( मारणान्तिक उपसर्ग आए तो भी) अशुभ वृत्तियों (आसुरी वृत्तियों) से उपरत रहे । देवों और दानवों (असुरों) द्वारा अनुमत ( मान्य) बातों को अतर्षि ( वल्कलचीरी) कहते हैं ।
- देव, दानव और मानवों के समग्र लोक को जिसने वश में कर लिया ( जीत लिया) है, संसार से विरत अथवा विरज ( कर्मरज से रहित ) वह मैं ( वल्कल-चीरी) इस प्रकार कहता हूँ । हे आत्मन् ! ( साधक !) तू नारी - वृन्द पर आसक्त मत हो, और अपने आप का शत्रु ( अबन्धु) भी मत बन; अतः जितना भी सम्भव है, युद्ध करो और विजयी बनो ।
-नारी - विषयों में गृद्ध (लोलुप ) रहने वाला आत्मा अपने आपका अबन्धु (शत्रु) होता है । अतः जो पुरुष इसका जितना भी विवर्जन करता है, उतना ही वह उपशान्त रह सकता है ।
प्रस्तुत गाथाओं में अतर्षि वल्कलचीरी ने साधक के जीवन को एक युद्धस्थल बता कर उसमें प्रतिक्षण काम, क्रोधादि कषाय, राग, द्व ेष मोह, ममत्व आदि से सावधान रहकर इनके साथ युद्ध करके विजयी बनने का संकेत किया ।
आध्यात्मिक युद्ध में सावधानी
इस आध्यात्मिक युद्ध में आत्मार्थी साधक को सर्वप्रथम यह जानना होगा कि मेरे आत्म - विकास या आत्मशुद्धि में बाधक शत्रु कौन-कौन हैं ? मेरे पक्ष और विपक्ष में कौन-कौन हैं ? यह युद्ध तो जीवन में सतत चल ही रहा है । मोर्चे पर पक्ष-विपक्ष दोनों ओर के सैनिक डटे हुए हैं, ऐसे समय में