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जैन परम्परा का उपनिषद् - ऋषिभाषितानि
हम जिस संसार में जी रहे हैं, इसका नाम है लोक ! लोक का अर्थ है, जो दीखता है, या जो देखा जाता है । यह दुनियाँ हमें आंखों से साफ दिखाई देती है - इसलिए हम इसे 'लोक' कहते हैं ।
एक आचार्य ने लोक का अर्थ किया है
यत्र पुण्य-पाप फल- लोकनं स लोक: - ( राजवार्तिक)
जहाँ पुण्य और पाप का फल प्रत्यक्ष देखा जाता है, वह है लोक । मनुष्य को, इन्सान को भी लोक कहते हैं । जो स्वयं देख सकता है - जो देखता है वह भी लोक है अर्थात् मनुष्य में देखने की शक्ति है, इस लिए इसे भी 'लोक' कहते हैं ।
आप कहेंगे, देखने की शक्ति तो पशु में भी है, बिल्ली बड़ी तेज देखती है, गीध की दृष्टि भी बड़ी तेज है, पर यह 'लोक' क्यो नहीं ? इसका उत्तर स्व० विनोबा जी ने यों दिया है
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पश्यति इति पशु - जो सिर्फ देखता है, वह पशु है । मननशीलः मनुष्यः
--"जो देखकर उस पर विचार भी करता है, चिन्तन मनन करता है, वह मनुष्य है ।
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पशु और मनुष्य में यही अन्त है - पशु सिर्फ देखता भर है, उस पर विचार नहीं करता। क्यों, क्या, कैसे किसलिए – इन प्रश्नों पर उसका दिमाग काम नहीं करता, किंतु मनुष्य लोकन करता है, अवलोकन भी करता है । मनन करता है, विचार करता है अपने अतीत के विषय में और अपने भविष्य के मननशील है, इसलिए वह मनुष्य है । अवलोक लोक है ।
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अपने जीवन के विषय में विषय में भी सोचता हैशील है, इसलिए यह
जब मनुष्य देखता है, तो क्या देखता है - यही कि इस दुनियां में कुछ लोग बुरे हैं, कुछ भले हैं। कुछ सज्जन है, कुछ दुर्जन हैं ! कुछ सुखी