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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * | पिता की प्रसन्नता धन आदि का उत्तराधिकार दिलाती है, वैसे ही गुरु की संतुष्टि ज्ञान का रहस्य और उनके आत्मिक अनुभव के महादान की प्राप्ति करवाती है। गुरु के प्रति विनम्र भाव
सद्गुरु के प्रति अप्रीति, अविनय, अभक्ति आदि का नाश होना और प्रीति आदि का उदय होना उनके प्रति विनम्रता है। बुद्धि और भाव हृदय के नेत्र हैं। यद्यपि बुद्धि मतिज्ञान का अंश है। परन्तु सहृदय व्यक्ति की बुद्धि ही प्रशस्त होती है। इसलिए बुद्धि को हृदय का नेत्र माना है और हृदय की आँख के रूप में विवेक की प्रसिद्धि है ही। भाव को तत्त्व उपलब्धि में निकटतम कारण होने और सद्बुद्धि का सहचारी होने के कारण नेत्र तुल्य माना है। बुद्धि और भाव कितने भी तीव्र हों, परन्तु सम्यग्ज्ञान के अभाव में वे तत्त्वों को सही रूप में नहीं जान सकते हैं। यदि जानते हैं तो सम्यक् रूप से ग्रहण प्रायः नहीं कर पाते हैं। परन्तु ज्ञानरूपी ज्योति से तत्त्वों को सम्यक् रूप जानकर असंदिग्ध रूप में ग्रहण करने में समर्थ हो जाते हैं। ... गुरु चिकित्सक हैं __जिनाज्ञा की आराधना से ही भवसागर से पार हो सकते हैं। जिनाज्ञा की समझ
और श्रद्धा स्वच्छंदता के कारण प्राप्त नहीं हो सकती है। स्वच्छंदता की परिणति दो रूपों में होती है-हितशिक्षा को अनसुनी करना, तद्प प्रवृत्ति से दूर रहना और सद्गुणों में अरुचि करना, उनसे विपरीत प्रवृत्ति करना। करुणा के सिन्धु गुरुदेव कुशल शल्य-चिकित्सक के समान धृष्टता और दुष्टता रूप व्रण (घाव) की यत्नपूर्वक शल्य-चिकित्सा करके स्वच्छंदता रूप रोग का नाश करते हैं। जिससे जीव स्वाधीन बनता है और जिनाज्ञा की आराधना करने की योग्यता सम्पादन करते हैं।
मोक्ष हेतु गुरु-कृपा आवश्यक ___ साधारण मनुष्य सीढ़ियों के अवलम्बन के बिना भवन की ऊपरी मंजिल पर नहीं पहुँच सकता। स्वच्छंद मनुष्य भी साधना के क्षेत्र में साधारण मनुष्य ही है। क्योंकि वह मोक्षमार्ग के प्रेरक गुरुजन से विमुख रहकर आध्यात्मिक क्षेत्र में दरिद्र ही रहता है। स्वच्छंद मनुष्य की आत्मिक शक्तियों का अंशमात्र भी विकास नहीं होता है। उस पर सद्गुरु की कृपा का अवतरण नहीं हो सकता। यदि उस पर गुरु-कृपा हो तो वह उसे पहचान ही नहीं पाता और उसकी अवहेलना करता है। परन्तु वह शाश्वत सुख या स्वतंत्रता रूप मोक्ष की चाह तो रखता ही है। मोक्ष की प्राप्ति का क्रमबद्ध मार्ग है। गुरु-कृपा उस मार्ग का एक चरण है। अतः गुरु-कृपा