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अरिहन्त, अर्हत, अरुहन्त तीन रूप
'अरि' का अर्थ है - शत्रु । ' हन्त' का अर्थ है - हनन करना । जिन्होंने बाह्य और आभ्यंतर राग-द्वेष शत्रुओं का हनन कर दिया है, वे अरिहन्त कहलाते हैं। सुरेन्द्र, नरेन्द्र आदि द्वारा पूजनीय होने के कारण वे अर्हंत कहलाते हैं । और कर्मांकुर को समूल नष्ट करने के कारण वे अरुहन्त कहलाते हैं।
गुरु का स्वरूप
देव-तत्त्व के बाद दूसरा तत्त्व है - गुरु । प्रत्येक सम्यक्त्वी सम्यक्त्व ग्रहण के समय यह प्रतिज्ञा करता है
अर्थात् सुसाधु,
* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ *
"सुसाहुणो गुरुणो।"
श्रेष्ठ साधु मेरे
गुरु
हैं। 'योगशास्त्र' में कहा गया है
" महाव्रत धरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः ।
सामधिकम्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥”
- अहिंसा आदि ५ महाव्रतों के धारक परीषह एवं उपसर्ग आने पर भी व्याकुल न होने वाले धीर, भिक्षा से ही जीवन निर्वाह करने वाले, सदैव समभाव में रहने वाले और सद्धर्म का उपदेश देने वाले गुरु कहलाते हैं ।
धर्म का स्वरूप
जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित मार्ग ही वास्तव में धर्म है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में
"वत्थु सहावो धम्मो ।”
- प्रत्येक वस्तु का अपना जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है। धर्म जीवन का बहुत बड़ा बल है । आध्यात्मिक जीवन का प्राण ही धर्म है।
गुरु की महिमा
से
गुरु का माहात्म्य भी तभी तक है, जब तक कि वह निर्लोभी है, विषय - कषाय दूर है। जहाँ उसमें किसी भी दोष का संचार हुआ कि उसका सारा माहात्म्य समाप्त हो जाता है। संसार में सभी दुर्गुण एक कुमति के पीछे चलते हैं और सभी सद्गुण एक सुमति के पीछे चलते हैं । सद्गुरु की शिक्षा के प्राप्त होते ही सभी गुण स्वयमेव प्राप्त होने लगते हैं । किन्तु गुरु-भक्ति के बिना कुछ भी नहीं है । सदाचार या चारित्र का प्रसार गुरु-भक्ति के होने पर ही होता है। अतः कहा गया है कि