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| दूसरा पाल : गुरु-पर्युपास्ति : गुरु-सेवा ।
प्रथम फल-जिनेन्द्र पूजा की बड़े विस्तार के साथ चर्चा हम कर चुके हैं। अब दूसरे फल-गुरु-पर्युपास्ति की चर्चा करनी है। गुरु-पर्युपास्ति में दो पद हैं-गुरु + पर्युपास्ति = गुरु-पर्युपास्ति। सबसे पहले गुरु शब्द पर विस्तृत रूप में चर्चा करेंगे। गुरु का अर्थ
"गु शब्दस्त्वन्धकारस्य, रु शब्दस्तनिरोधकः।
अन्धकारनिरोधत्वाद, गुरुरित्यभिधीयते॥" -'गु' का अर्थ है-अन्धकार। 'रु' का अर्थ है-नाश करने वाला। जो अज्ञान अन्धकार को नष्ट करता है, वह गुरु है। भारतीय संस्कृति के अमर गायकों ने गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है
“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः॥" -गुरु ब्रह्मा, विष्णु व महेश्वर का रूप है। यदि अपने चिन्तन की मनोभूमि पर उतरते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि वास्तव में गुरु ब्रह्मा, विष्णु व परमेश्वर का रूप ही नहीं, बल्कि परमात्मा का रूप भी है। क्योंकि गुरु ८४ लाख जीव योनियों में अनन्त काल से भटकती हुई इस आत्मा को संसार-सागर से पार उतारने का मार्ग ही नहीं दिखाते, बल्कि सदा के लिए भव सिन्धु से पार भी उतार देते हैं। जीवन नैया को संसार भँवर से तथा विषय-कषाय रूप मगरमच्छों द्वारा ग्रसने से बचाने वाले खिवैया सच्चे गुरु का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। एक जिज्ञासु ने एक विचारक से पूछा
___ "किं दुर्लभम् ?" -इस संसार में दुर्लभ क्या है ? विचारक ने गम्भीर चिन्तन के पश्चात् जिज्ञासु से कहा-“इस संसार में समस्त वस्तुएँ मिलना सरल है, सहज है, लेकिन सद्गुरु का मिलना अत्यन्त ही दुर्लभ है।" भारतवर्ष में लगभग ९० लाख के करीब साधुओं एवं गुरुओं की संख्या है। जिनके पास रहने के लिए भव्य भवन हैं, घूमने