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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * | अर्थात् सूर्य और सम्यग्ज्ञान में बहुत बड़ा अन्तर है। सूर्य नियत क्षेत्र में ही प्रकाश करता है और वह भी सिर्फ दिन में, रात्रि के समय वह विहीन हो जाता है, सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार छा जाता है। मगर जब सम्यग्ज्ञान का परिपूर्ण विकास होता है, तो सम्पूर्ण तीनों लोकों में उसका आलोक अव्याहत रूप से प्रस्तुत हो जाता है। उस समय उसे आच्छादित करने वाला कोई भी कारण नहीं रह जाता। उसकी एक बड़ी विशेषता यह भी है कि एक बार आलोकित होने के पश्चात् वह कभी भी अस्त ही नहीं होता। इसलिए आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने 'आवश्यकनियुक्ति' में कहा है
___ “णाणं पयासगं।" -ज्ञान प्रकाश करने वाला है। ज्ञान मनुष्य-जीवन का सार है। ज्ञान ही सच्ची शक्ति है। ऐसे ज्ञान को जीवन में अंगीकार करना चाहिए। आचार्य श्री शुभचन्द्र जी ने ‘ज्ञानार्णव' में कहा है
___“भव क्लेशविनाशाय, पिब ! ज्ञान सुधारसम्।" -जन्म-मरण के दुःख को मिटाने के लिए ज्ञान सुधारस का पान करो। ज्ञान एक महासागर की तरह असीम एवं अगाध है।
सम्यग्ज्ञान का स्वरूप-यह सम्यग्ज्ञान क्या है? इस पर यदि आप गहराई से विचार करेंगे तो आप आश्चर्य करेंगे कि वस्तुतः हम सही ज्ञान से अब तक कितनी दूर रहे हैं। अज्ञान मन की रात है जिसमें चाँद व तारे नहीं चमकते। हम अब तक उसी गहन अंधकारयुक्त रात्रि में ही ठोकरें खाते रहे हैं। ज्ञान का सही स्वरूप समझाते हुए कहा है
“जेण तच्चं विवुझेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणं॥" -जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, विषय-वासनाओं की ओर जाते हुए चित्त का निरोध होता है, परिणामस्वरूप आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिन-शासन में ज्ञान कहा है। और भी कहा
"जेण रागा विरेज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि। जेण मित्ती पमावेज्ज, तं णाणं जिणसासणं॥"