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* प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा *
* ७१ * शुक्लध्यान-कर्म मैल को शोधन करने वाला तथा शुच = शोक को दूर करने वाला ध्यान शुक्लध्यान होता है। धर्मध्यान शुक्ल का साधन है। शुक्लध्यान में पहुँचकर मन पूर्ण एकाग्र, स्थिर, निश्चल एवं निस्पन्द हो जाता है। साधक के सामने कितने ही सुन्दर प्रलोभन क्यों न हों, शरीर को तिल-तिल करने वाले कैसे ही क्यों न छेदन-भेदन हों, शुक्लध्यान के द्वारा स्थिर हुआ अचंचल चित्त लेशमात्र भी चलायमान नहीं होता। शुक्लध्यान की उत्कृष्टता केवलज्ञान उत्पन्न करने वाली है और केवलज्ञान की प्राप्ति सदा के लिए जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ाने वाली है।
आर्त आदि चारों की ध्यानों का स्वरूप संक्षेप भाषा में स्मृतिस्थ रह सके, इसके लिए हम यहाँ एक प्राचीन गाथा उद्धृत करते हैं। यह गाथा आचार्य जिनदास महत्तर ने ‘आवश्यकचूर्णि' के रूप में प्रस्तुत की है। गाथा प्राकृत और संस्कृत भाषा में सम्मिश्रित है और बड़ी ही सुन्दर है। वह गाथा इस प्रकार है
"हिंसाणुरंजियं रौद्र, अट्ट कामाणुरंजितं।
___ धम्माणुरंजियं धम्म, सुक्कं झाणं निरंजणं॥" ___-हिंसा से अनुरंजित = {गा हुआ ध्यान रौद्र है, काम से अनुरंजित ध्यान आर्त कहलाता है, धर्म से अनुरंजित ध्यान धर्मध्यान है और शुक्लध्यान पूर्ण निरंजन होता है।
ध्यान का वर्णन बहुत विस्तृत है। यहाँ संक्षेप रुचि के कारण अधिक चर्चा में नहीं उतर सके हैं। इस सम्बन्ध में अधिक जिज्ञासा वाले सज्जन प्रवचनसारोद्धार, ध्यानशतक, ध्यानकल्पतरु, तत्त्वार्थसूत्र, स्थानांगसूत्र आदि का अवलोकन करने का कष्ट करें।
(१२) व्युत्सर्ग तप-व्युत्सर्ग शब्द 'वि' + 'उत्' + ‘सर्ग' = व्युत्सर्ग। 'वि' का अर्थ होता है-विविध। 'उत्' का अर्थ है-उत्कृष्ट। ‘सग' का अर्थ है-'त्याग'। इसके आधार पर व्युत्सर्ग का शब्दार्थ होगा-विविध प्रकार का उत्कृष्ट त्याग। स्त्री, पुत्र आदि के सम्बन्धों को कर्मबन्ध का बाह्य कारण माना जाता है और अहंकार व ममत्व आदि को अन्तरंग कारण माना गया है। ये वे दोष हैं, जिन्हें प्रत्येक साधन को छोड़ना चाहिए। अतः इन बाह्य व आभ्यन्तर दोषों का भलीभाँति से त्याग करना व्युत्सर्ग है। अथवा शरीर व उसके आहार में प्रवृत्ति को हटाकर, ध्येय वस्तु, पदार्थ की एकाग्रता करना तथा बन्ध के हेतुभूत तमाम बाह्य और आभ्यन्तर दोषों का भली प्रकार से त्याग करना व्युत्सर्ग कहते हैं।