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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ *
" मोक्षः कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद् ध्यानं हितमात्मनः ॥”
- कर्मों के क्षय से ही मोक्ष होता है, कर्मक्षय आत्म-ज्ञान से होता है और आत्म-ज्ञान ध्यान से प्राप्त होता है, अतः ध्यान आत्मा के लिए हितकारी माना गया है। आचार्य हेमचन्द्र जी महाराज कह रहे हैं
"श्रयते सुवर्ण भावं, सिद्धरस स्पर्शतो यथालोहम्। आत्म ध्यानादात्मा, परमात्मत्वं तथाऽऽप्नोति ॥”
- जैसे सिद्धरस रसायन के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है। उसी प्रकार आत्मा का ध्यान करने से आत्मा परमात्मा बन जाता है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने 'आचारांगसूत्र की नियुक्ति' में कहा है
"सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साहु धम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥”
- जैसे मनुष्य के शरीर में उसका सिर महत्त्वपूर्ण है तथा वृक्ष में जड़ मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। भारतीय संस्कृति में ध्यान का क्षेत्र बड़ा विशाल क्षेत्र है। ध्यान को चार भागों में विभक्त किया गया हैआर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान ।
आर्त्तध्यान-आर्त्ति का अर्थ दुःख, कष्ट एवं पीड़ा होता है। आर्त्ति के निमित्त से जो ध्यान होता है, वह आर्त्तध्यान कहलाता है । अनिष्ट वस्तु के संयोग से, इष्ट वस्तु के वियोग से, रोग आदि के कारण से तथैव भोगों की लालसा से जो मन में एक प्रकार की विकलता-सी अर्थात् सतत कसक - सी होती है वह आर्त्तध्यान है ।
रौद्रध्यान - रुद्र का अर्थ है हिंसक व्यक्ति । हिंसक व्यक्ति की चिन्तनधारा सदैव हिंसा, युद्ध, मारपीट, कलह, द्वेष आदि पर ही केन्द्रित रहती है। उसकी इसी चिन्तनधारा को रौद्रध्यान कहा जाता है। कभी-कभी मनुष्य कामान्ध होकर भी बड़ेबड़े युद्ध छेड़ देता है, अतः वासनाओं के चिन्तन को भी रौद्रध्यान कहा जाता है।
धर्मध्यान - श्रुत एवं चारित्र की साधना को धर्म कहते हैं । अर्थात् जो ध्यान धर्म से युक्त है, वह धर्मध्यान है। धर्म भावना से प्राणियों पर दया, स्वधर्मीवात्सल्य, करुणा, अनुकम्पा आदि से प्रेरित चिन्तन तथा आगमों आदि में पठित एवं गुरुजनों से सुने हुए धार्मिक विषयों का मनन तथा आत्म-चिन्तन आदि को धर्मध्यान कहा जाता है ।