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प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा
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हमारे भारतीय मनीषियों ने ध्यान का महत्त्व बताते हुए कहा है- ध्यै चिन्तायाम् धातु से बने ध्यान शब्द का अर्थ है - चिन्तन, मनन करना, किन्तु अध्यात्म-साधना में ध्यान का तात्पर्य है - मन को एक आलम्बन पर स्थिर करना, किसी एक वस्तु पर मन को एकाग्र करना। जैन, वैदिक एवं बौद्ध सभी परम्पराओं में ध्यान अर्थात् मन के केन्द्रीयकरण को मुक्ति का मार्ग माना है। ध्यान के समय मन की चंचलता रुक जाने से वह दीपक की स्थिर लौ - सा शान्त हो जाता है।
'तत्त्वार्थ सार' के अन्दर कहा है
"मण सलिले थिरभुए दीसइ
अप्पा तहा विमले । "
- मानस सागर में मनोविकारों की उठने वाली तरंगें शान्त हो जाती हैं और चित्त निर्मल एवं शुद्ध हो जाता है। 'गीता' में श्रीकृष्ण ने कहा है“ध्यानं निर्विषयं मनः । "
- मन का विषयरहित ही ध्यान है ।
“ध्यानं आत्मस्वरूप चिन्तनम्।”
- आत्म-स्वरूप का नाम ही ध्यान है ।
" एकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानम् ।”
- एकाग्र रूप से चिन्ता का निरोध अथवा पदार्थ पर विचार का केन्द्रीयकरण ध्यान है। ध्यान शुभ चिन्तन की धाय माँ है और शुभ चिन्तन ही ध्यान की खुराक है । वास्तव में शुभ चिन्तन से चित्त की शुद्धि होती है और आत्मा विशुद्ध बन जाती है। ध्यान चित्त शुद्धि की वह प्रक्रिया है, जिससे चित्त में स्थित वासना, कामना, संशय, अन्तर्द्वन्द्व, तनाव, क्षोभ, उद्विग्नता, चिन्ता, शान्ति, अप्रसन्नता इत्यादि विकार दूर होते हैं। ध्यान से मन में उत्साह बढ़ता है, चित्त में साहस का संचार होता है, उत्साह और साहस से सोचा हुआ शुभ कार्य पूर्ण होता है। ध्यान आत्मा को देखने के लिए एक दर्पण है। उपाध्याय यशोविजय जी महाराज ने 'अध्यात्म सार' में कहा है
“कर्मयोगं समभ्यस्य, ज्ञानयोगं समाहितः । ध्यानयोगं समारुह्य, मुक्तियोगं प्रपद्यते॥”
- कर्मयोग का अभ्यास करके ज्ञानयोग में समाहित हुआ योगी फिर ध्यानयोग पर आरूढ़ होकर मुक्तियोग को प्राप्त कर लेता है। आचार्य हेमचन्द्र जी महाराज ने 'योगशास्त्र' में स्पष्ट कहा है