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___ * पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * |
प्रकट हो जाता है। स्वाध्याय वाणी की तपस्या है। इसके द्वारा हृदय का मैल धुलकर साफ हो जाता है। स्वाध्याय अन्तःप्रेक्षण है। इसी के अभ्यास से बहुत-से पुरुष आत्मोन्नति करते हुए महात्मा परमात्मा हो गये हैं। अन्तर का ज्ञान दीपक बिना स्वाध्याय के प्रज्वलित हो ही नहीं सकता। ये 'शिखरोपनिषद्' में कहा है
“यथाग्निरुिमध्यस्थो, नो तिष्ठेन्मथनं विना।
विना चाभ्यासयोगेन, ज्ञान दीपस्तथा नहि॥" -जैसे लकड़ी में रही हुई अग्नि मन्थन के बिना प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान दीपक, जो हमारे भीतर ही विद्यमान है, स्वाध्याय के अभ्यास के बिना प्रदीप्त नहीं हो सकता। 'चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र' में कहा है
“नवि अत्थि नवि य होई सज्झायसमं तवो कम्म।" -स्वाध्याय से अनेक भवों के संचित दुष्कर्म क्षणभर में क्षीण हो जाते हैं। जैसे विशाल ईंधन के ढेर को थोड़ी-सी आग पलभर में भस्मसात् कर देती है। ऐसे ही स्वाध्याय भी कर्मों का सर्वनाश कर देता है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' के २१वें अध्ययन में भगवान महावीर से पूछा गया
“सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?' -हे भंते ! स्वाध्याय से जीव को क्या लाभ होता है ? .. उत्तर दिया जाता है
. “सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ।" -स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म को क्षीण करता है। स्वाध्याय के समान दूसरा कोई तप नहीं है। धर्मग्रन्थों, शास्त्रों, सत्साहित्यादि का मर्यादापूर्वक अध्ययन करना स्वाध्याय है। अध्यात्म जगत् में स्वाध्याय का बहुत बड़ा महत्त्व है। जो भव्य जीव सदशास्त्रों का एवं अपनी आत्मा का स्वाध्याय करेगा, वही अपनी आत्मा का कल्याण करेगा। ज्ञान-विज्ञान, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, कल्याण-अकल्याण इत्यादि को जानने के लिए स्वाध्याय तप है।
(११) ध्यान तप-निर्वात स्थान में स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल और अन्य विषयों के संकल्प से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही चिन्तन ध्यान कहलाता है। अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थिर अध्यवसान एवं मन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं।