________________
प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा
६७
(१०) स्वाध्याय तप - भारतीय संस्कृति में स्वाध्याय का स्थान बहुत ऊँचा एवं पवित्र माना गया है। हमारे पूर्वजों ने जो भी ज्ञान राशि एकत्रित की है और जिसे देखकर आज समस्त संसार चमत्कृत है, वह स्वाध्याय के द्वारा ही प्राप्त हुई है। भारत जब तक स्वाध्याय की ओर से उदासीन न हुआ, तब तक वह ज्ञान के दिव्य प्रकाश से जगमगाता रहा । स्वाध्याय वह सूर्य है, जिसके आलोक में मनुष्य जीवन रहस्य जान सकता है, स्वाध्याय वह दिव्य चक्षु है, जिसके माध्यम से मनुष्य अतीत, अनागत और वर्तमान को हाथ में रखे दर्पण की तरह देख सकता है। स्वाध्याय ज्ञान का अक्षय स्रोत है।
'स्थानांगसूत्र की टीका' में आचार्य श्री अभयदेवसूरि ने स्वाध्याय की व्याख्या करते हुए कहा है
“सुष्ठु आमर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः ।”
- सत्शास्त्र की मर्यादा के साथ पढ़ना स्वाध्याय है। उन्होंने दूसरी परिभाषा देते हुए कहा है
" स्वेन स्वस्य अध्ययनम् स्वाध्यायः ।”
- अपने द्वारा अपना अध्याय स्वाध्याय है। सु + अधि + आयः = स्वाध्याय । बाह्य जगत् से अपने अन्दर लौटना ही स्वाध्याय है । स्वाध्याय. हमारे अन्धकारपूर्ण जीवन-पथ के लिए दीपक के समान है। शास्त्रकारों ने स्वाध्याय को नन्दनवन की उपमा दी है। जिस प्रकार नन्दनवन में प्रत्येक दिशा की ओर भव्य से भव्य दृश्य मन को आनन्दित करने के लिए होते हैं, वहाँ जाकर मनुष्य सब प्रकार की दुःख और क्लेश-सम्बन्धी झंझटें भूल जाता है, उसी प्रकार स्वाध्याय रूप नन्दनवन में भी. एक से एक सुन्दर एवं शिक्षाप्रद दृश्य देखने को मिलते हैं और आनन्दमय वातावरण में विचरण करता है। 'योगदर्शन' में महर्षि पतंजलि ने स्वाध्याय पर प्रकाश डालते हुए कहा है
"स्वाध्यायदिष्ट देवता संप्रयोगः ।"
- स्वाध्याय रूप दर्पण में इष्ट देवता का साक्षात्कार किया जा सकता है। महर्षि पंतजलि ने परमात्म-ज्योति के दर्शन पाने के लिए स्वाध्याय को बड़ा महत्त्व दिया है और लिखा है
“स्वाध्यायाद् योगमासीत, योगात्स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्याय-योगसंपत्या,
परमात्मा
प्रकाशते ॥"
- स्वाध्याय से योग और योग से स्वाध्याय की साधना होती है। जो साधक स्वाध्याय मूलक योग का अच्छी तरह अभ्यास कर लेता है, उसके सामने परमात्मा