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________________ * ६४ * * पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * चिन्तन और विवेचन भी बड़े विस्तार के साथ बतलाया गया है। जिसे पूर्ण विवेक से देखने-पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है कि संवेग और निर्वेद से भरा हुआ साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है, उसको प्रायश्चित्त तप कहा गया है। अध्यात्म जगत् में दोष अथवा अपराध को रोग कहा जा सकता है और प्रायश्चित्त विधान को उसकी चिकित्सा माना जा सकता है। चिकित्सा का उद्देश्य रोगी को कष्ट देना नहीं होता है, बल्कि उसके रोग का निवारण करना होता है। उसी तरह दोषयुक्त साधु को प्रायश्चित्त देने का उद्देश्य, उसे कष्ट या क्लेश देना या पहुँचाना नहीं होता, बल्कि उसे दोषमुक्त करना होता है। अर्थात् धारण किये हुए व्रतों में प्रमाद जन्य दोषों के निवारण के लिए श्रद्धापूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण करना ही प्रायश्चित्त तप कहलाता है। (८) विनय तप-ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से सम्पन्न गुरुजनों, गुणीजनों एवं सज्जनों का विनम्र भाव से बहुमान करना ही विनय है। व्रत, विद्या, आयु आदि में अपने से बड़ों के प्रति सम्मान का भाव रखना और उनकी उपेक्षा न करना आदि विनय है। साथ ही देव, गुरु, धर्मादि का सम्मान करना और इनकी अवहेलना न करना भी विनय है। विनय शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक 'नी'-नयने धातु से बना है। “विनयतीति विनयः।" यहाँ पर 'विनयति' इस शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-दूर करना और विशेष रूप से (किसी वस्तु को) प्राप्त करना। विनय साधना मार्ग में रुकावट बनकर खड़े अप्रशस्त कर्मों को दूर करती है और जिन वचन के ज्ञान को प्राप्त कराती है। जिसका फल मोक्ष है अर्थात् 'विनय' में वह सब सामर्थ्य छिपी हुई है। भारतीय संस्कृति का प्रत्येक शास्त्र, ग्रन्थ इस बात से सहमत है. कि __ “विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।" -विद्या विनय की दात्री है। विनय से व्यक्ति में वह पात्रता आती है, जिससे वह धर्म को धारण करने लायक बनता है और धर्म को धारण करने से सुख होता है। 'भावपाहुड' में भी विनय के माहात्म्य को स्वीकार करके साधु-मुनि को सलाह देते हुए कहा गया है “विणयं पचपयारं पालहि, मणवयण काए जोएण। अविणय णरा सुविहियं, तत्तोमुत्तिं ण पावंति॥" -हे मुनि ! पाँच प्रकार की विनय को मन, वचन व काया से पालन करो। क्योंकि विनय से रहित व्यक्ति सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं।
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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