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* प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा *
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विनय के पाँच भेद-ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्त विनय, तप विनय व उपचार विनय। यह पाँचों मोक्ष गति के नायक माने गये हैं। विनय से ज्ञान लाभ, आचार विशुद्धि और सम्यक् आराधना की सिद्धि होती है और अन्त में मोक्ष-सुख भी मिलता है। मोक्ष के अभिलाषियों को ज्ञान की प्राप्ति के पाँच आचारों को निर्मल करने के लिए, सम्यग्दर्शन आदि को विशुद्ध बनाने और आराधना आदि की सम्यक् सिद्धि के लिए विनय की भावना करनी चाहिए। जहाँ विनय है, वहाँ धर्म है।
. “धम्मस्स विणओ मूलं।" -धर्म का मूल विनयं है। जिस धर्म से मूलगुण विनय ही निकल जायेगा, उसमें उत्तरगुण कैसे आयेगा? जिस व्यापारी के पास मूल नहीं, उसके पास ब्याज कहाँ से आयेगा? भगवान महावीर ने 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा है-एक वृक्ष है, अगर उसका मूल ठीक है तो उसके स्कन्ध, शाखाएँ, प्रतिशाखाएँ, पत्ते, फल-फूल और रस भी है। यदि वृक्ष का मूल सूख गया तो स्कन्ध, शाखाएँ, प्रतिशाखाएँ, पत्ते, फल-फूल और रस की प्राप्ति नहीं। 'धर्मरत्न प्रकरण' में कहा है
“विनएण णरो, गन्धेण चंदणं सोमयाइ रयणियरो।
महुरस्सेण अमयं, जणपियत्तं लहइ भुवणे॥" -जैसे सुगन्ध के कारण चंदन, सौम्यता के कारण चन्द्रमा और मधुरता के कारण अमृत जगत्प्रिय है, ऐसे ही विनय के कारण मनुष्य लोगों में प्रिय बन जाता है। जिस तप के करने से विशेष रूप से मोक्ष तक पहुँचा जा सकता है, वह तप विनय है, जिसके द्वारा सम्पूर्ण दुःखों के कारणभूत आठ कर्मों का विनयन-विनाश होता है, उसे विनय कहते हैं।
(९) वैयावृत्य तप'श्री स्थानांगसूत्र की टीका' में कहा है___ “वैयावृत्यम्, भक्तादिभिर्धर्मोपग्रहकारि वस्तुभिः उपग्रहकरणे।"
अर्थात् धर्माराधना में सहारा देने वाली आहार आदि वस्तुओं द्वारा उपग्रह सहायता प्रदान करना वैयावृत्य है। वैयावृत्य तप को सेवा तप भी कहते हैं। सेवा शब्द का अर्थ है-परिचर्या, खिदमत, पूजा, आराधना, रोगी एवं गुरुजनों को उनकी इच्छित वस्तु प्रदान करना। सेवा धर्म महान् है, उत्कृष्ट मंगल है, तपस्या का पावन धाम है। सेवा की इसी अलौकिक महिमा के कारण ही सम्भव है, अहिंसा के अमर देवता भगवान महावीर ने 'उत्तराध्ययनसूत्र' में यह उद्घोष किया है-" ..