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पद्म-पुष्प की अमर सौरभ और दान ग्रहण करने वाला भी शुद्ध हो । बयालीस दोष टालकर संयम निर्वाह के लिए भिक्षा माँगना भिक्षाचर्या तप है। भिक्षाचर्या तप एक महान् तप है।
(४) रस-परित्याग तप-विकारजनक रसों का अर्थात् दूध, दही, घी, मिठाई, नवनीत, तेल, गुड़, मधु, मद्य और माँस आदि महाविकृतियों का त्याग करना रस- परित्याग तप है।
(५) कायक्लेश तप- कायक्लेश का अर्थ है - काया को कष्ट देना । शरीर के प्रति निर्ममत्व भाव रखना और आसन आदि से शरीर को सम्यक् प्रकार से साधना । “देह दुःखं महाफलं।”
- देह को कष्ट देना महान् फल प्रदान करता है। अज्ञानी साधक भयंकर कष्ट सहन करता है, किन्तु उसका देह दुःख महाफल प्रदाता नहीं होता । ज्ञानपूर्वक जो देह को कष्ट दिया जाता है, अपनी ओर से कर्म - निर्जरा हेतु अनेक प्रकार के आसन, ध्यान, प्रतिमा, केश लुञ्चन, शरीर-मोह का त्याग आदि के माध्यम से विदेह भाव को स्वीकार किया जाता है, वह कायक्लेश तप कहलाता है।
उपाध्याय यशोविजय जी महाराज 'ज्ञानसार' एवं 'तपोष्टक' में लिखते हैंमनोवांछित लक्ष्य की सिद्धि हेतु शरीर को जो कष्ट दिया जाता है, वह कष्ट नहीं है। उन्होंने एक उपमा दी - जैसे बहुमूल्य रत्नों की उपलब्धि के लिए व्यापारी विराट्काय समुद्रों को लाँघता है, गगनचुम्बी पर्वतों की चोटियों पर पहुँचता है, भयानक जंगलों को पार करता है, यात्राओं में असह्य पीड़ाएँ सहन करता है, तो भी उन यात्राओं में उसे आनन्द प्राप्त होता है। इसी तरह मुक्ति का आकांक्षी साधक कायक्लेश के द्वारा जप, तप व ध्यान की साधना करता है किन्तु उसे उसमें कष्ट नहीं होता । जिस साधना में साधक को कष्टानुभूति होती है, वह साधना नहीं। रोते-रोते कष्ट उठाना यह तो परतन्त्र व्यक्तियों का कार्य है। साधक तो कष्ट को कष्ट ही नहीं मानता। कायक्लेश किया नहीं जाता, होता है। साधक का लक्ष्य तो आत्मा को विशुद्ध बनाना है । शास्त्रकार एक उपमा दे रहे हैं। जैसे घी में यदि मैल है तो उस मैल को अलग करने के लिए घी को किसी पात्र में रखकर अग्नि में तपाया जाता है। पात्र को तपाना उद्देश्य नहीं है, तपाना घी को है । किन्तु बिना पात्र के माध्यम के घी तप नहीं सकता। इसलिए घी के साथ पात्र भी तपता है। वैसे ही आत्मा पर लगे विकारों को नष्ट करने हेतु साधक का लक्ष्य आत्मा को तपाने का होता है, किन्तु आत्मा का निवास शरीर में होने से शरीर को भी तपाया जाता है। आत्मा शुद्धि का लक्ष्य होने के कारण तपाते समय पीड़ा होने पर भी साधक पीड़ा की अनुभूति नहीं करता क्योंकि वह यह समझता है कि देह