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________________ * प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा * * ६१ * कषायों को कम करना ही भाव ऊनोदरी है। ऊनोदरी तप करना बहुत कठिन है, लेकिन जो करते हैं वे अपना कल्याण करते हैं। ऊनोदरी तप के द्वारा चमत्कार को पाया जा सकता है। दिव्य आत्मा का आलोक है। इस ऊनोदरी तप के धारी महान् चमत्कारी महापुरुष स्वामी श्री रूपचन्द जी महाराज थे। इस महापुरुष के जीवन में ऊनोदरी तप का बहुत बड़ा महत्त्व था। __ (३) भिक्षाचर्या तप-निर्दोष आहार पानी ग्रहण करना। भिक्षाचर्या को गोचरी के नाम से भी पुकारा जाता है। गो-चरी। गो का अर्थ है-गऊ। चरी का अर्थ हैचरना। जैसे गाय, यह घास बढ़िया किस्म की है और यह घास घटिया किस्म की है, इस प्रकार का भेद किये बिना अपने उदर-पोषणार्थ वह एक किनारे से दूसरे किनारे तक चरती हुई चली जाती है, वह जिस घास को चरती है, उसे नष्ट नहीं करती, बिना जड़ उखाड़े घास को चरती है, वैसे ही श्रमण साधु भी बिना गृहस्थ को कष्ट दिये भिक्षा ग्रहण करता है। वह यह नहीं सोचता कि यह सरस आहार है या नीरस आहार है। यह श्रेष्ठी का घर है या निर्धन का घर है। बिना भेदभाव किये भिक्षा ग्रहण करना ही भिक्षाचर्या तप है। गोचरी को मधुकरी भी कहते हैं। जैसे मधुकर फूलों पर मँडराता है और थोड़ा-थोड़ा रस लेकर उड़ जाता है और फिर अन्य फूल पर बैठकर रस पान करता है, वह फूलों को कष्ट नहीं देता और स्वयं भी तृप्त होता है, वैसे ही श्रमण, भिक्षु, साधु भी गृहस्थ को कष्ट न देकर भिक्षा ग्रहण करता है। श्रमण मधुकर और गाय की वृत्ति के अनुसार भिक्षा ग्रहण करता है। आचार्य हरिभद्र ने भिक्षा के तीन प्रकार बताये हैं-(१) दीनवृत्ति भिक्षा, (२) पौरुषघ्नी भिक्षा, और (३) सर्वसम्पत्करी भिक्षा। जो व्यक्ति अनाथ हैं, अपंग हैं या आपत्ति से संत्रस्त हैं, वे भिक्षा माँगकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं, वह दीनवृत्ति भिक्षा है। जिनके शरीर में सामर्थ्य है, कमाने की शक्ति होने पर भी काम से जी चुराकर जो भिक्षा माँगते हैं, वह पौरुषघ्नी 'भिक्षा है। यह भिक्षा पुरुषत्व को नष्ट करने वाली है। ऐसे भिक्षुक देश के लिए भाररूप होते हैं। जो श्रमण उदर-निर्वाह के लिए गृहस्थ के घर से उसके अपने लिए बना हुआ निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं, वह सर्वसम्पत्करी भिक्षा है। भिखारी की भिक्षा दीनवृत्तिं और पौरुषघ्नी होती है जबकि जैन साधु की भिक्षा सर्वसम्पत्करी होती है। सर्वसम्पत्करी भिक्षा से देने वाले का भी उद्धार होता है और लेने वाले का भी। दोनों को सद्गति प्राप्त होती है। दान प्रदान करने वाले को यह ध्यान रखना चाहिए कि देय वस्तु शुद्ध हो, दाता की भावना भी विशुद्ध हो
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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