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प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा
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चिलचिलाती धूप से पानी सूख जाता है । भयंकर गर्मी से ठण्ड भाग जाती है। वैसे ही कर्मरूपी जल को तप सुखा देता है। भवरूपी सनसनाती शीत को नष्ट कर देता है । तप वह ज्वाला है, जिससे अनन्तकाल से जो विकार अन्तर्मानस में पनप रहे होते हैं, वे सब जलकर नष्ट हो जाते हैं। तप वह दिव्य ज्योति है, जो अन्तर्मानस के गहन अन्धकार को एक क्षण में नष्ट कर देती है। तप में केवल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का निरोध ही नहीं होता, वासना और विकारों का भी निरोध होता है।
सिद्धियों का मूल : तप
इस विराट् विश्व में जितनी भी शक्तियाँ हैं, विभूतियाँ हैं और. लब्धियाँ हैं, वे तप से संप्राप्त होती हैं। इसलिए कहा है
" तपोमूला हि सिद्धयः ।"
- समस्त सिद्धियाँ तप मूलक हैं। जितनी भी लब्धियाँ हैं, वे तप से ही संप्राप्त होती हैं। तप से आत्मा में एक अद्भुत तेज का संचार होता है। आप सुनते हैं या पढ़ते हैं, गणधर इन्द्रभूति गौतम को जो अद्भुत लब्धियाँ आलब्ध हुई थीं, उसका मूल भी तप था।
चक्रवर्ती सम्राट् षट्खण्ड पर विजय वैजयन्ती फहराने के लिए तप की साधना करते हैं। वे तीन दिन तक निर्जल तप एक बार नहीं, तेरह बार करते हैं। किसी भी कठिन व अभीष्ट कार्य की पूर्ति हेतु वे तप की आराधना करते हैं। चक्रवर्ती ही नहीं, वासुदेव भी अपने कार्य की सिद्धि के लिए तप की आराधना करते हैं। तप में वह शक्ति है, जिसके कारण देवता भी नतमस्तक हो जाते हैं । तप से आत्मा में जो प्रचण्ड शक्ति उद्भूत होती है, उसके सामने देवता तो क्या इन्द्र भी उस तपस्वी के चरणों की धूल लेने के लिए लालायित रहते हैं । इस विराट् विश्व में सर्वाधिक दुष्प्राय वस्तु है, वह तप के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। तप का आध्यात्मिक क्षेत्र में बहुत बड़ा महत्त्व है, तप का क्षेत्र बड़ा विशाल रूप धारण किये है। जैन आगम साहित्य में तप को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया गया है - (१) बाह्य तप, और ( २ ) आभ्यन्तर तप ।
बाह्य तप
जिस तप में शारीरिक क्रिया की प्रधानता होती है और जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा मुक्त होने से दूसरों को दृष्टिगोचर होता है, वह बाह्य तप है । बाह्य तप के