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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * ___जो व्यक्ति आयंबिल, उपवास, नवकारसी, पोरसी इत्यादि तप करते हैं और उनका शरीर भले ही कृश हो किन्तु आत्मा अत्यन्त दृढ़, निर्मल और सशक्त बनती है और शरीर के कृश होने पर भी नुकसान कुछ नहीं होता, क्योंकि इस शरीर को तो वैसे भी एक दिन नष्ट होना ही है। इसलिए क्यों न तप करके आत्मा को लाभ पहुँचाया जाये। वाल्मीकि ने 'रामायण' में कहा है
“अध्रुवे हि शरीरे यो न करोति तपोऽर्जनम्। . .
स पश्चात्तप्यते मूढो, मृतोगत्वात्मनोगतिम्॥" -यह शरीर तो क्षण-भंगुर है, इसमें रहते हुए जो जीव तप उपार्जन नहीं करता, वह मूर्ख मरने के पश्चात् जब उसे अपने कुकर्मों का फल मिलता है, तब बहुत पश्चात्ताप करता है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने ‘आचारांग नियुक्ति' में बहुत सुन्दर फरमाया है
“जह खलु मइलं वत्थं, सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहि।
एवं भावुवहाणेण, सुज्झए कम्ममट्ठविहं॥" -जिस प्रकार जल आदि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक तप-साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्ममल से मुक्त हो जाता है।
श्रमण संस्कृति तप प्रधान संस्कृति है। तप श्रमण संस्कृति का प्राण तत्त्व है, जीवन की श्रेष्ठ कला है, आत्मा की अन्तःस्फूर्ति पवित्रता है, जीवन का दिव्य आलोक है, आत्म-शोधन की प्रक्रिया है। तप की महिमा और गरिमा का गौरव गान श्रमण संस्कृति ने गाया है, वह अपूर्व है, अनूठा है।
जीवनोत्थान का प्रशस्त पथ : तप
तप जीवन उत्थान का प्रशस्त पथ है। तप की उत्कृष्ट आराधना और साधना से तीर्थंकर जैसे गौरवपूर्ण पद की भी उपलब्धि होती है। यदि हम सभी तीर्थंकरों के पूर्व-भवों का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि सभी तीर्थंकरों ने अपने पूर्व-भव में तप की महान् साधनाएँ की थीं। तप का जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है। तप की परिभाषा करते हुए आचार्य कहते हैं-शब्द-रचना की दृष्टि से तप शब्द 'तप' धातु से बना है, जिसका अर्थ तपना है। सुप्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है- .
___ “तप्यते अणंण पावं कम्ममितितपो।" -जो आठ प्रकार के कर्म को तपाता है, उन्हें नष्ट करने में समर्थ हो, वह
तप है।