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* प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा *
अर्थात् साधकों के लिए निःसंगता ही मुक्ति-पथ है, क्योंकि संग (आसक्तिअनुराग) से अनेक दोष पैदा हो सकते हैं। बड़े-बड़े अध्यात्मयोगी भी संग के कारण पतन के गर्त में गिर गये हैं। फिर अल्प सिद्धि वाले साधारण साधक की तो बात ही क्या? वस्तुतः निःसंगता ही सच्चे साधक जीवन की उन्नति का मूल द्वार है। निःसंगता का अर्थ है-संसार के पौद्गलिक वातावरण से रहित होना, स्पृह भाव का त्याग करके, निःस्पृह भाव में आना ही निःसंगता है। उपाध्याय यशोविजय जी महाराज ‘ज्ञानसार' में स्पृहा एवं निःस्पृह की चर्चा करते फरमा रहे हैं
“परस्पृहा महादुःखं, निःस्पृहत्व महासुखम्।
एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुख-दुःखयोः॥". अर्थात् पुद्गल की स्पृहा करना संसार का महादुःख है, जबकि निःस्पृहता में सुख की अक्षय निधि छिपी हुई है, श्रमण जितना निःस्पृह. होगा उतना ही सुखी होगा। सच्चे साधक की धारणा है-मेरे पास सब कुछ है। मेरी आत्मा सुख और शान्ति से परिपूर्ण है। मुझे किसी बात की कमी नहीं, मेरी आत्मा में जो सर्वोत्तम सुख भरा हुआ है, दुनिया में ऐसा सुख कहीं नहीं ! तब भला मैं इसकी स्पृहा क्यों करूँ ? ऐसी भावना से निज आत्मा को भावित रखना चाहिए। मैं आत्मा हूँ, चैतन्य स्वरूप हूँ, सुख से परिपूर्ण हूँ। जड़ पौद्गलिक पदार्थों के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भला, मुझे उसकी स्पृहा क्यों करनी चाहिए? उपाध्याय यशोविजय जी 'ज्ञानसार' में कहते हैं
. “छिन्दन्ति ज्ञानदात्रेण , स्पृहाविषलतां बुधाः।
मुख शोषं च मूर्छा च, दैन्यं यच्छति यत्फलम्॥" ____ अर्थात् अध्यात्म-ज्ञानी पण्डित स्पृहारूपी विष-लता को ज्ञानरूपी दांति से काटते हैं, जो स्पृहा विष-लता के फलरूप, मुख का सूखना, मूर्छा पाना और दीनता प्रदान करते हैं। यह स्पृहारूपी नागिनी संसार के प्राणियों को डस रही है। इंसान में स्पृहां का अधिक बोलबोला है। चाहे धन-धान्य की स्पृहा, गंध-सुगन्ध की स्पृहा, रंग-रूप की स्पृहा, कमनीय-षोडसी रमणियों की स्पृहा, मान-सन्मान और आदर-प्रतिष्ठा की स्पृहा, न जाने किस-किसकी स्पृहा के विष के फुहारे निरन्तर उड़ते रहते हैं। मानव पागलपन में आया हुआ दिन-रात दुःख और कष्टों से ग्रसित होता जा रहा है। क्या तीव्र स्पृहा के बन्धन से जीव मुक्त नहीं हो सकता? अवश्य मुक्त हो सकता है। यदि ज्ञान का मार्ग अपनाये तो, उसके बल पर वह विषय-वासना की लालसा को नियंत्रित कर सकता है। ज्ञानमार्ग का सहयोग लेना मतलब जड़ और चेतन के भेद का यथार्थ ज्ञान होना, स्पृहाजन्य अशान्ति की अकुलाहट होना और स्पृहा की पूर्ति से