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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * |
प्राप्त सुख के प्रति मन में पूर्णरूपेण उदासीनता होना ही निःसंगता है। अगर मन में आसक्ति है तो वह परिभ्रमण का कारण है। आसक्ति सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के पदार्थों पर हो सकती है। पदार्थों के परित्याग के साथ ही आसक्ति का परित्याग आवश्यक है। इच्छा-आकांक्षाओं पर नियन्त्रण के लिए अनासक्त होना आवश्यक है। जहाँ अनासक्ति है, वहाँ निःस्पृह भाव आ जाता है। यही निःसंगता है। निःसंग होकर भगवान की सच्ची पूजा करना ही निःसंगता है। पूजा के आठ फूलों में पाँचवें फूल की चर्चा संक्षिप्त शब्दों में सम्मुख आ गई है। अब हम छठे फूलगुरु-भक्ति की चर्चा अल्प शब्दों के द्वारा करेंगे।
६. गुरु-भक्ति _ 'योगशास्त्र' में आचार्य श्री हेमचन्द्र जी महाराज ने गुरु-भक्ति पर प्रकाश डालते हुए कहा है-“समस्त कार्यों से निवृत्त होकर वह विशुद्ध आत्मा-श्रावक गुरु की सेवा में उपस्थित होकर गुरुदेव को भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार करे और अपने ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान को उनके समक्ष प्रकट करे।" आचार्य कहते हैं-"गुरु को देखते ही खड़े हो जाना, आने पर सामने जाना, दूर से ही मस्तक पर अंजलि जोड़ना, बैठने के लिए स्वयं आसन प्रदान करना, उनके गमन करने पर कुछ दूर तक अनुगमन करना, यह सब गुरु की भक्ति है। गुरु पर हमारी अटूट श्रद्धा-भक्ति होनी चाहिए। उनकी आज्ञा सदा शिरोधार्य करनी चाहिए। गुरु-भक्ति का एक अत्यन्त श्रेष्ठ प्राचीन उदाहरण आपके समक्ष रख रहा हूँ।
उदाहरण-सनातन आम्नाय के महान् आचार्य शंकर हुए हैं। एक बार आचार्य शंकर नदी के तट पर जो एक आश्रम था। वहाँ का शान्त एकान्त वातावरण था। जहाँ उनके शिष्य-समूह अध्ययन-अध्यापन में तल्लीन थे। इन शिष्यों में ही उनके अनन्य शिष्य सनन्दन था। जो पूर्ण रूप से गुरु-सेवा, गुरु-आज्ञा का पालन करने वाला था। सदैव गुरु के प्रति विनम्र शील था।
“गुरोराज्ञा बलीयसी।' -गुरु की आज्ञा बलवती होती है, इसके अनुसार जीवन चलाने वाला था। ध्यान, समाधि एवं स्वाध्याय के लिए पूर्ण समर्पित था। एक बार सनन्दन तन्मयता के साथ नदी के उस किनारे बैठा अध्ययनरत था। आचार्य शंकर के महान् ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर उनका गहन चिन्तन-मनन एवं मंथन चल रहा था। अकस्मात् उन्हें आभास हुआ कि नदी पार से गुरुदेव उन्हें व्यग्रता के साथ आह्वान कर रहे हैं। गुरु बुलायें और शिष्य न जाये, यह असम्भव था। फलतः वे पूर्ण वेग से