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________________ * प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा * * ४७* रहा था, मार्ग में उसे एक साधु बीमार मिला, उसने भक्त से गंगाजल माँगा। परन्तु उस भक्त ने गंगाजल नहीं दिया, क्योंकि उसे जल शिवलिंग पर चढ़ाना था, उस साधु को जल न देकर अपने घर में आ गया, घर आकर मन्दिर में गया, भगवान की मूर्ति पर जल चढ़ाया और पूजा-भक्ति की और घर जाकर सो गया। अर्ध-रात्रि के समय उस भक्त को स्वप्न में भगवान प्रकट एवं दर्शन दे रहे हैं। भगवान कह रहे हैं-“हे भक्त ! मुझे भयंकर बुखार आ रहा है।" भक्त ने पूछा-“भगवन् ! आपको बुखार कैसे आ सकता है?" "भक्त कल जिस साधु को तुमने जल नहीं पिलाया, वह मेरा ही स्वरूप था, अर्थात् मेरा उस साधु के स्वरूप में स्वरूप मिला हुआ था।" भगवान कह रहे हैं-“हे भक्त ! जो जड़ मूर्तियों की अपेक्षा मेरी चेतन मूर्तियों की पूजा-सेवा करता है, वह भक्त मुझे अतिप्रिय लगता है।" स्वप्न के बाद प्रातःकाल उठते ही उसने उस साधु की खोज की, मिल गया और उसकी खूब सेवा-भक्ति की। वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। इसलिए आचार्य कहते हैं-“जड़ मूर्ति की पूजा करने का लाभ नहीं है।" महात्मा कबीर ने भी अपनी वाणी में फरमाया है . “पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़। ताते यह चक्की भली, पीस खाए संसार॥" सन्त बुल्लेशाह कहते हैं “मक्के जाके इहा पूजे, गंगा जाके पाणी। 'बुल्लेशाह ऐसा करणी कर चलगो, मिट जाय आणी-जाणी॥" जैनधर्म में द्रव्य पूजा को इतना महत्त्व नहीं दिया है, भाव पूजा को महत्त्व दिया है। भाव पूजा, द्रव्य पूजा से श्रेष्ठ है, इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं लगता है, उसे अखण्ड पूजा भी कहते हैं, अखण्ड पूजा का महत्त्व बताते हुए अध्यात्मयोगी आनन्दघन अपनी वाणी में फरमा रहे हैं ___“चित्त प्रसन्न रे पूजन फल कडं, पूजा अखण्डित एह।" -भगवान की सेवा-पूजा का फल चित्त की प्रसन्नता-स्वच्छता कहा है। हृदय की पवित्रता-प्रसन्नता ही भगवान की अखण्ड पूजा है। किसी कवि ने भी कहा है “पूजा रोज रचालो मन में, सत्य भगवान की। पापी से भी पापियों की, जिन्दगी हो शान की॥" देवाधिदेव भगवान महावीर ने ‘प्रश्नव्याकरणसूत्र' में एक सूत्र दिया है “सच्चं खु भगवं।"
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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