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द्रव्य पूजा
पद्म-पुष्प की अमर सौरभ *
" वचोविग्रह संकोचो, द्रव्य पूजा निगद्यते । "
-वाणी और शरीर का संकोच करना ही द्रव्य पूजा है । द्रव्य पूजा करने में अनेक पदार्थों का योग मिलाना पड़ता है तथा आरम्भ समारम्भ करना भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि द्रव्य पूजा करने वाले अनेक प्रकार के पदार्थ काम में लेते हैं, जैसे- फल, फूल, चावल, कुमकुम, धूपबत्ती आदि अन्य प्रकार के खाद्य पदार्थ आदि साधनों के द्वारा जो पूजा की जाती है, वह द्रव्य पूजा कहलाती है ।
भाव पूजा
“ तत्र मानस संकोचो, भाव पूजा पुरातनैः । "
उनके
- मन का संकोच करना भाव पूजा है। जिनेन्द्र देव पर पूर्ण श्रद्धा करना, वचनों पर विश्वास रखते हुए उनके निर्देशित मार्ग पर चलना ही भाव पूजा है। कलिकालसर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्र जी महाराज ने वीतराग स्तुति करते हुए
कहा
" तव सपर्यास्तवाज्ञा परिपालनम् ।"
- हे भगवन् ! आपकी वास्तविक सेवा-पूजा तो आपकी आज्ञाओं का श्रद्धापूर्वक पालन करना ही है। भगवान महावीर ने छह काया के जीवों की रक्षा का विधान फरमाया है। षटुकाया के जीवों की रक्षा वास्तव में भाव पूजा है ।
द्रव्य पूजा की अपेक्षा भाव पूजा का महत्त्व है। अधिकतर देखा जाता है, संसार में इंसान द्रव्य पूजा अथवा जड़ पूजा को महत्त्व देता है। जड़ पूजा का अर्थ है - चित्र व पत्थर आदि की प्रतिमा की पूजा करना । परन्तु यहाँ पर एक प्रश्न उपस्थित हो जाता है, क्या जड़ मूर्ति की अपेक्षा चेतन मूर्ति (साधु-सन्त) की पूजा (उपासना) अधिक श्रेष्ठ है ? हाँ, श्रेष्ठ है । 'श्रीमद् भागवत् पुराण' में लिखा गया है
“अहं सर्वेषु भूतेषु, भूत्वात्मावस्थितः सदा । तमवज्ञाय मा मर्त्यः, कुरुतेऽर्चा विडम्बनाम्॥”
अर्थात् मैं आज्ञा बनकर सब प्राणियों में सदा अवस्थित हूँ किन्तु उसकी (यानि मेरी) उपेक्षा करके मनुष्य जड़ मूर्ति की पूजा की विडम्बना करता है । कैसे ? इसके लिए आचार्य कहते हैं
उदाहरण - प्राचीनकाल की घटना है। एक भगवान का परम भक्त था। एक बार गंगा जी में स्नान करने गया। गंगा से वापस घर की ओर गंगाजल लेकर लौट