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* पद्म-पुष्प की अमर सौरभ *
-भक्ति कल्याणकारी है।
चारों गतियों में और चौरासी लाख जीव योनियों में घूमते हुए जीव के लिए 'भक्ति' महान कल्याण करने वाली अमोघ शक्ति है, बिना भक्ति के कोई भी जीव अपना कल्याण करने में कदापि समर्थ नहीं हो सकता। शास्त्रों में कहा गया है कि "भक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों प्रकार के पुरुषार्थों की साधना करने वाला अत्युत्तम सद्गुण है।" भक्ति की महिमा कितनी अपरम्पार है कि इसके बल से जीवन संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है और संसाररूपी समुद्र से पार हो जाता है। 'गीता' के अन्दर वासुदेव श्रीकृष्ण कहते हैं
_ “ये भजन्ति तु मां भक्त्या , मयि ते, तेषु चापि अहं।" अर्थात् जो मुझको (भगवान को) भावपूर्ण रीति से भजते हैं, उनमें मैं विराजमान रहता हूँ और वे. मेरे में समाये हुए होते हैं। भक्ति की परिभाषा करते हुए कहा है— “भज्यते सेव्यते भगवदाकारतया, अन्तःकरणं क्रियते अनया इति भक्तिः।"
-जिसके द्वारा भजन किया जाये, अर्थात् जिस क्रिया द्वारा मन को प्रभुमय बना लिया जाये, उसे भक्ति कहते हैं। ___ जो मनुष्य मानव-शरीर प्राप्त करके भी ईश्वर-भक्ति नहीं करते हैं, वे मनुष्य नहीं हैं, किन्तु पशु हैं। ऐसे भक्तिहीन पुरुषों का जन्म बकरी के गले में रहे हुए स्तनों के तथा कान के समान निरर्थक ही होता है। भक्ति का प्रभाव निर्मल हृदय में ही प्रशस्त रूप से हुआ करता है, अतः हृदय में निर्मलता होने पर ही भक्ति का पूर्ण आनन्द आता है। हृदय की मलिनता होने पर भक्ति का सच्चा आनन्द नहीं आ सकता है। जैसे-साफ खेत में फसल का पौधा सरलतापूर्वक बढ़ता है और फल भी सुन्दर देता है, वैसे ही निर्मल हृदय में आराधित भक्ति भी भक्त को, अपूर्व आत्मिक आनन्द के साथ-साथ निर्मलता को बढ़ाती है। कषाययुक्त हृदय में भक्तिरूप बीज का पौधा पनप नहीं सकता है, अतः कषाय का ह्रास होना भक्ति के लिए एक आवश्यक उपादान है।
__ भक्ति से परिपूर्ण हृदय में भक्त के लिए सुन्दर-सुन्दरं विचार-समूह अनायास ही उत्पन्न होते रहते हैं। जैसे वर्षा काल में पानी के प्रभाव से हरियाली अपने आप ही अंकुरित हो जाती है अथवा जैसे कोयल की भाषा शक्ति बसन्त-ऋतु में अपने आप ही मुखरित हो जाती है अथवा जैसे सूर्य की किरण मात्र से ही सम्पूर्ण रात्रि का घनीभूत अन्धकार भी अपने आप ही विलीन हो जाता है, वैसे ही भक्तिवशात्