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* प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा *
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"तओ इंदा पण्णत्ता,
तं जहा-देविंदे, असुरिंदे, मणुस्सिंदे।" देवेन्द्र, असुरेन्द्र और मनुष्येन्द्र-देवताओं के इन्द्र को देवेन्द्र कहते हैं। देवों के चार भेद हैं-वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति, वाणव्यन्तर। इसमें वैमानिक एवं ज्योतिष्क देवों के स्वामी देवेन्द्र हैं। जबकि भवनपति, वाणव्यन्तर देवों के स्वामी असुरेन्द्र हैं। जो राजाओं में सर्वश्रेष्ठ चक्रवर्ती सम्राट् हैं, उन्हें मनुष्येन्द्र कहते हैं।
यहाँ इन्द्र एक पद है, मनुष्यों में जैसे 'राजा' वैसे देवों में 'इन्द्र' है। 'स्थानांगसूत्र' के स्था. २, ‘भगवतीसूत्र' के श. ३, उ. १ आदि आगमों में देव जाति के कुल ६४ इन्द्रों का वर्णन है, जैसे-वैमानिक देवों के १0 इन्द्र, ज्योतिष्क देवों के २ इन्द्र (सूर्य-चन्द्र), असुरकुमारों के १0 इन्द्र और व्यन्तर देवों के ३२ इन्द्र। इस प्रकार-'देव जाति' में कुल ६४ इन्द्रों का वर्णन आगमों में प्राप्त है। ये 'इन्द्र' एक पद-विशेष है, जो उस स्थान पर उत्पन्न होने के कारण उन्हें स्वतः उपलब्ध होता है, यह पद उपार्जित नहीं, एक उपलब्धि है, जो पूर्व-जन्म के तप आदि के कारण उपलब्ध होता है। पूजा का महत्त्व और स्वरूप ___पूजा भारतीय संस्कृति की एक आदर्श विशेषता है, यहाँ भगवान की पूजा होती है और गुरु की पूजा होती है, यहाँ अतिथि का भी आदर-सत्कार किया जाता है, यह अतिथि की पूजा ही है। परमात्मा सर्वश्रेष्ठ है, परमात्मा की पूजा से मन प्रसन्न हो जाता है, उसे संसार में सब ओर, चहुँ तरफ प्रसन्नता का अनुभव होता है। पूजा का श्रेष्ठ फलं है चित्त की प्रसन्नता। निष्कपट भाव से प्रभु के प्रति समर्पित होना ही अखण्ड पूजा है।
जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने से समस्त उपसर्गों का क्षय हो जाता है। विघ्न बल्लियाँ जड़ मूल से उखड़ जाती हैं और चित्त प्रसन्न होता है। भगवान के नाम में बहुत बड़ी शक्ति है, दुनिया के नाम झूठे हो सकते हैं लेकिन प्रभु का नाम सच्चा है। प्रभु की भक्ति, उपासना, पूजा, अर्चना इत्यादि करने से शान्ति मिलती है, दीर्घकाल से एकत्रित अशुभ परमाणु तथा कर्म झड़ जाते हैं। पूजा को भक्ति भी कहते हैं। आराधना, उपासना भी कहते हैं। भक्ति में शक्ति है।
“भक्तिः श्रेयानुबन्धिनी।" १. उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्न वल्लयः।
मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे॥